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श्री नेमिनाथ-चरित * 419 इस दिन से बलराम आस-पास के स्थानों में नरसिंह मुनि के नाम से सम्बोधित किये जाने लगे। उनकी तपस्या और उनके धर्मोपदेश के प्रभाव से सिंहादिक हिंसक पशुओं को भी आन्तरिक शान्ति प्राप्त हुई। उनमें से अनेक श्रावक हुए, अनेक भद्रिक हुए, अनेक ने कायोत्सर्ग किया, और अनेक ने अनशन किया। मांसाहार से तो प्राय: सभी निवृत्त हो गये और तिर्यश्च रूपधारी शिष्यों की भांति वे, महामुनि बलराम के रक्षक होकर सदा उनके निकट रहने लगे।
जिस वन में बलराम तपस्या करते थे, उसी वन में एक मृग रहता था। वह बलराम के पूर्वजन्म का कोई सम्बन्धी था। जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने के कारण उसे अत्यन्त संवेग उत्पन्न हुआ था, फलत: वह बलराम का सहचारी बन गया था। बलरामं मुनि की उपासना कर, वह हरिण वन में घूमा करता
और अन्न सहित तृण काष्टादिक संग्रह करने वालों को खोजा करता। यदि सौभाग्यवश, कभी कोई उसे मिल जाता, तो वह ध्यानस्थ बलराम मुनि के चरणों पर शिर रखकर, उन्हें इसकी सूचना देता। बलराम भी उसका अनुरोध मानकर, क्षण भर के लिए ध्यान को छोड़, उस अग्रगामी हरिण के पीछे उस स्थान तक जाते और वहां से भिक्षा ग्रहणकर अपने वासस्थान को लौट आते।
• एक बार अच्छे काष्ट की तलाश करते हुई कई रथकार वहां आये और सीधे सीधे वृक्षों को पसन्द कर उन्हें काटने लगे। इसी समय उस हरिण ने उनको देखकर बलराम को उनके आगमन की सूचना दी। बलराम ने कुछ समय के लिए अपना ध्यान भंग दिया। उन्हें उसी दिन मास क्षमण व्रत का पारणा करना था। इसलिए उस अग्रगामी हरिण के पीछे-पीछे बलराम उन रथकारों के पास गये। उस समय वे सब भोजन करने जा रहे थे। महामुनि को देखते ही उन रथकारों का अग्रणी, जो एक वृद्ध पुरुष था, अपने मन में कहने लगा-"अहो! इस महारण्य में भी जंगम कल्पवृक्ष समान इस साधु के मुझे दर्शन हुए। अहो! कैसा इसका सुन्दर रूप है! कैसा प्रबल तेज है! कैसा महान उपशम है ! नि:संदेह, इस अतिथिमुनि के दर्शन से मेरा जीवन आज सफल हो गया है।"
इस प्रकार सोचकर वह रथकार खड़ा हो गया और अत्यन्त आदर पूर्वक