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418 * बलराम की दीक्षा और नेमिप्रभु का मोक्ष
तदनन्तर बलराम को दीक्षाभिलाषी जानकर इसी समय नेमिभगवान ने एक विद्याधर मुनि को उनके पास भेजा, जिसके निकट बलराम ने दीक्षा ले ली। इसके बाद बलराम तुंगिक पर्वत के शिखर पर जाकर तीव्र तप करने लगे . और सिद्धार्थ उनका रक्षपाल बनकर निरन्तर उनकी रक्षा करने लगा।
एक बार मुनिराज बलराम मासक्षमण तप कर, पारणा करने के लिए किसी नगर में गये। वहां पर एक कुएँ पर एक स्त्री अपने बालक के साथ जल भरने आयी थी। बलराम का अलौकिक रूप देखकर उसका चित्त अस्थिर-हो गया और वह घड़े के बदले उस बालक के गले में रस्सी बांधकर, उसे उस कुएं में डालने लगी। उसका यह कार्य देखकर बलराम अपने मन में कहने । लगे—“अहो! मेरे इस रूप को धिक्कार है, कि जिसको देखकर इस अबला: के चित्त में चंचलता उत्पन्न हो गयी है। अब आज से मैं किसी भी ग्राम या नगर में प्रवेश न करूंगा और वन में काष्टादिक लेने के लिए जो लोग आयेंगे, उन्हीं से भिक्षा मांगकर वहीं पारणा कर लिया करूंगा। ऐसा करने से भविष्य में किसी प्रकार का अनर्थ तो न होगा।" - इसके बाद उस स्त्री को उपदेश देकर बलराम वन को चले गये और वहां पुन: मासक्षमणादिक दुस्तप तप करने लगे। पारणे के समय तृण काष्टादिक संग्रह करने वाले उन्हें जो कुछ दे देते, उसीसे वे पारणा कर लिया करते थे। इससे उनके चित्त को परम सन्तोष और शान्ति मिलती थी।
कुछ दिनों के बाद तृण काष्टादिक संग्रह करने वालों ने बलराम की इस तपस्या का हाल अपने-अपने राजा से कहा। इस पर सभी राजा चिन्तित हो उठे और कहने लगे कि हमारा राज्य छीनने के लिए ही तो कोई यह तप नहीं कर रहा है ? उन लोगों में अधिक विचार शक्ति न थी, इसलिए उन्होंने स्थिर किया कि उसे मारकर सदा के लिए यह चिन्ता दूर कर देनी चाहिए, निदान, उन सबों ने एक साथ मिलकर अपनी अपनी सेना के साथ, उस वन के लिए प्रस्थान किया। जब वे बलराम मुनि के पास पहुँचे, तब उनके रक्षपाल सिद्धार्थ ने अनेक भयंकर सिंह उत्पन्न किये, जिनकी गर्जना से सारा वन प्रतिध्वनित हो उठा। राजगण इसे मुनिराज का प्रताप समझकर बहुत ही लज्जित हुए और उनसे क्षमाप्रार्थना कर अपने अपने स्थान को वापस चले गये। ।