SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 417 यह मरी हुई गाय अब स्वप्न में भी घास खा सकती है?' इस पर गोपाल ने हँसकर कहा—“यदि आपका भाई जीवित हो सकता है, तो नि:सन्देह, यह गाय भी घास खा सकती है!" बार-बार सब लोगों के मुख से एक समान ही उत्तर सुनकर बलराम की विचार शक्ति कुछ जागृत हुई और वह अपने मन में कहने लगे—“क्या सचमुच कृष्ण की मृत्यु हो गयी है ? यदि ऐसा न होता तो सब लोग मुझसे एक ही समान बात क्यों कहते?" ___बलराम को इस प्रकार विचार करते देख, सिद्धार्थ अपने प्रकृत रूप में उनके सामने आकर उपस्थित हुआ। उसने बलराम को अपना परिचय देते हुए कहा—“हे प्रभो! मैं आपका सारथी सिद्धार्थ हूँ। दीक्षा लेने के बाद मेरी मृत्यु हो गयी थी और मुझे देवत्व प्राप्त हुआ था। अब मैं आपको उपदेश देने के लिए आपके पास आया हूँ, क्योंकि आपने इसके लिए मुझसे वचन ले लिया था। नेमि भगवान ने बतलाया था कि कृष्ण की मृत्यु जराकुमार के हाथ से होगी। उनका वह वचन बिल्कुल सत्य प्रमाणित हुआ। क्या सर्वज्ञ का कथन कभी अन्यथा हो सकता था? कृष्ण ने अपना कौस्तुभ रत्न चिन्ह • स्वरूप देकर जराकुमार को पाण्डवों के पास भेज दिया है। हे प्रभो! इन सब बातों पर विश्वास कर, आपको मोह का त्याग करना चाहिए और कोई ऐसा कार्य करना चाहिए, जिससे आपकी आत्मा का कल्याण हो।" .बलराम ने स्वस्थ होकर कहा—“हे देवोत्तम! मैं आपकी बातों पर विश्वास करता हूँ, किन्तु इस समय मैं बन्धु की मृत्यु के कारण शोक सागर में निमग्न हो रहा है। मेरा चित्त अस्थिर हो रहा है। मेरी मानसक शान्ति नष्ट हो गयी है। कृपया बतलाइये, कि इस समय मुझे क्या करना चाहिए? ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे करने से मेरा आत्म कल्याण हो सकता है? - सिद्धार्थ ने उत्तर दिया-“हे प्रभो! आप दीक्षा ग्रहण करिए, वह आपके लिए परम लाभदायी सिद्ध होगी। आपकी सारी अशान्ति और सारा शोक उससे दूर हो जायगा।" ___बलराम ने सिद्धार्थ का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने शीघ्र ही उसके साथ सिन्धु संगम पर जाकर कृष्ण के शरीर का चन्दनादिक काष्ट द्वारा अग्नि संस्कार किया।
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy