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श्री नेमिनाथ-चरित * 415 अकेला रहने में असमर्थ हूँ, किन्तु अब तो तुम मुझसे भी नहीं बोलते ! हे केशव! तुम्हारा वह प्रेम कहां चला गया? संभव है कि मुझसे कोई अपराध हुआ हो और उसी के कारण तुमने मौनावलम्बन कर लिया हो, परन्तु मुझे तो वैसी कोई घटना याद नहीं है। यदि मुझसे वैसा कोई अपराध हुआ हो, तो तुम्हें क्षमा करना चाहिए था। हां, मुझे जल लाने में विलम्ब हुआ, इसके कारण तुम रोष कर सकते हो, इसके लिए तुम्हारा यह रोष करना अनुचित भी नहीं, किन्तु हे वीरधिवीर! सूर्यास्त हो रहा है, इसलिए उठो, अब सोने का समय नहीं है।"
इस प्रकार विलाप करते-करते बलराम ने रात्रि व्यतीत कर दी। सुबह भी बहुत देर तक वे इसी तरह विलाप करते रहे, किन्तु कृष्ण अब अपने स्थान से न उठे, तब बलराममोह के कारण उनके मृत शरीर को कन्धे पर उठाकर गिरि-गुहा और वनादिक में भ्रमण करने लगे। दिन में एक बार पुष्पादिक द्वारा उस शरीर की पूजा कर देना और फिर उसे कन्धे पर लिये दिन भर घूमते रहना, यही बलराम का नित्यकर्म हो गया। इसी अवस्था में उन्होंने छ: मास व्यतीत कर दिये। - . धीरे-धीरे वर्षाकाल आ गया, किन्तु बलराम की इस नित्यचर्चा में कोई . परिवर्तन न हुआ। बलराम का मित्र सिद्धार्थ सारथी को इसके पहले ही देवत्व
प्राप्त हो चुका था, उसे अवधिज्ञान से यह सब बातें मालूम हुई। वह अपने मन में कहने लगा—“अहो! भ्रातृवत्सल बलराम कृष्ण के मरे हुए शरीर को उठाकर चारों ओर घूम रहा है। उसे उपदेश देकर उसका मोह दूर करना आवश्यक हैं क्योंकि दीक्षा लेने की आज्ञा देते समय मुझसे उपदेश देने की प्रार्थना भी की थी। इसलिए मुझे अब अपना कर्त्तव्य अवश्य पालन करना चाहिए।
यह सोचकर सिद्धार्थ ने पत्थर का एक रथ बनाया और बलराम के सामने उसे पर्वत से नीचे की ओर उतरता हुआ दिखाया। पर्वत से उतरकर जब वह रथ समतल भूमि में पहुँचा, तब उसका एक अंश टूट गया। सिद्धार्थ सारथी के वेश में उस रथ को चला रहा था। रथ टूटते ही वह उससे उतरकर उसे जोड़ने लगा। उसका यह कार्य देखकर बलराम ने कहा—“हे भाई! तुम