SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नेमिनाथ चरित 411 इधर जराकुमार भी एक वृक्ष की ओट में छिपा खड़ा था । अतः कृष्ण यह वचन सुनते ही वह चकित होकर कहने लगा- ' - " मेरा नाम जराकुमार हैं। यदुवंशी राजा वसुदेव तथा जरा रानी का पुत्र और कृष्ण बलराम का बड़ा भाई हूँ। प्रभु का वचन सुनकर कृष्ण की रक्षा के लिए मैं इस वन में चला आया था। यहां रहते मुझे आज बारह वर्ष हो गये, किन्तु अब तक इस वन में मुझे कोई मनुष्य न दिखायी दिया था । हे भाई! तुम मनुष्य की तरह बोलते हो पर कृपाकर बतलाओ, कि तुम कौन हो ? " कृष्ण ने कहा- - "हे नर व्याघ्र ! आओ, मैं ही तुम्हारा भ्राता कृष्ण हूँ, कि जिसके लिए तुम वनवासी हुए हो । हे बन्धो । ! तुम्हारा यह बारह वर्ष का परिश्रम उसी प्रकार बेकार हो गया, जिस प्रकार भूले हुए मुसाफिर का मार्ग चलना बेकार हो जाता है । " अब जराकुमार के आश्चर्य का वारापार न रहा। वह कहने लगा"कौन कृष्ण ? तुम यहां कहाँ ?" यह कहता हुआ वह कृष्ण के पास दौड़ आया और कृष्ण को देखते ही मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। थोड़ी देर में होश आने पर उसने करुण क्रन्दन करते हुए कृष्ण से पूछा – “भाई ! यह क्या? तुम यहां कैसे आ गये ? तुम्हारी यह अवस्था देखकर मालूम होता है कि नेमिप्रभु की सभी बातें सत्य प्रमाणित हुई हैं । हे भ्राता ! जो कुछ समाचार हो, शीघ्र ही मुझे कहो ।” कृष्ण ने जराकुमार को गले लगाकर, द्वारिका और यादवों के विनाश का समस्त वृत्तान्त उसे कह सुनाया। इससे जराकुमार पुनः रूदन करने लगा । उसमे ं कहा—“हाँ! यहां आये हुए अपने भाई को मारकर मैंने क्या कोई उचित कार्य किया है ? कृष्ण तो अपने सभी भाईयों को प्रेम करते थे । फिर, इस समय वे विपत्ति ग्रस्त थे। उन्हें मारकर मुझे नरक पृथ्वी में भी स्थान मिलेगा या नहीं, इसमें सन्देह है। कृष्ण ! मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए वनवास स्वीकार किया था, परन्तु मैं नहीं जानता था, कि विधाता इस स्थान में भी मुझसे यमका सा काम लेगा । हे पृथ्वी! मुझे मार्ग दे, ताकि मैं इसी शरीर से नरक पृथ्वी में चला जाऊं। यहां रहना अब नरक से भी बढ़कर दुःख दायी है, क्योंकि मुझे भ्रातृ हत्या का दु: ख प्राप्त हुआ है, जो समस्त दु:खों से बढ़कर
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy