SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 403 . इस प्रकार बलराम के समझाने बुझाने पर कृष्ण उदास चित्त से द्वारिका नगरी को लौट आये। उनके आते ही द्वैपायन की प्रतिज्ञा का समाचार समूचे नंगर में विद्युत् वेग से फैल गया। सुनते ही सभी लोग भय से कांप उठे और इस विपत्ति से बचने का उपाय सोचने लगे। दूसरे दिन कृष्ण ने नगर में घोषणा करा दी कि इस महान विपत्ति को टालने के लिए सब लोगों को धर्मकार्य में विशेष रूप से प्रवृत्त रहना चाहिए, अत: सब लोग वैसा ही करने लगे। शीघ्र ही भगवान ने भी वहां आकर रेवाताचल पर निवास किया। भगवान के आगमन के समाचार सुनकर, कृष्ण उन्हें सपरिवार वन्दन करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित हुए। प्रभु ने सदा की भांति इसबार भी श्रोता गणों को दिव्य धर्मोपदेश दिया। उसे सुनकर प्रद्युम्न, शाम्ब, निषध, उल्मक, सारण आदि कई यदुकुमार और सत्यभामा, रुक्मिणी तथा जाम्बवती आदि कई यादव पत्नियों को वैराग्य आ गया, फलत: उन्होंने प्रभु के निकट दीक्षा ले ली। - इसके बाद कृष्ण के पूछने पर प्रभु ने बतलाया कि—“द्वैपायन आज से बारहवें वर्ष द्वारिका नगरी को भस्म कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करेगा। इसी तरह भगवान की अन्यान्य बातें सुनकर कृष्ण अपने मन में कहने लगे कि समुद्रविजयादिक को धन्य है, जिन्होंने पहले ही से दीक्षा ले ली। मैं दीक्षा रहित हूँ, इसलिए मुझे धिक्कार है।" ... कृष्ण का यह मनोभाव जानकर भगवान ने कहा-“हे कृष्ण! वासुदेव कभी भी दीक्षा नहीं लेते। उन्होंने न कभी दीक्षा ली है, न कभी लेंगे। उनकी सदा.अधोगति ही होती है। तुम्हें भी मृत्यु के बाद तीसरी बालुका प्रभा नरक के दु:ख भोगने ही पड़ेंगे।" ____यह सुनकर कृष्ण बहुत उदास हो गये, किन्तु सर्वज्ञ प्रभु ने उन्हें समझाते हुए कहा-“हे कृष्ण! तुम्हें उदास होने का कोई कारण नहीं। नरक से निकल कर तुम पुन: मनुष्य होंगे। वहां से मृत्यु होने पर वैमानिक देव होंगे और वहां से उत्सर्पिणी काल आने पर वैताढ्य पर्वत के निकट पुढ़ा नामक देश के गंगाद्वार नगर में जितशत्रु राजा के पुत्र अमम नामक बारहवें तीर्थकर होंगे। बलराम मृत्यु के बाद पहले ब्रह्मदेवलोक में जायेंगे और वहां से च्युत
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy