________________
396 * द्रोपदी-हरण आराधना की, जिससे उसका ज्ञानान्तराय कर्म क्षीण हो गया।
इसके बाद वहां से विचरण करते हुए भगवान पुन: द्वारिका में आये। इसी समय वहां एक बार अचानक वृष्टि हुई वृष्टि के पहिले रथनेमि गोचरी के लिए भ्रमण करने निकला था। वहां से लौटते समय वह भीग गया और वर्षा से बचने के लिए एक गुफा में जा छिपा। इसी समय साध्वी राजीमती भी भगवान को वन्दन कर वासस्थान की ओर लौट रही थी। उसके साथ की अन्यान्य साध्वियां वृष्टि के भय से इधर उधर हो गयी, किन्तुं राजीमती .. धैर्यपूर्वक एक स्थान में खड़ी हो गयी। वह उस स्थान में बहुत देर तक खड़ी रही। उसके सब वस्त्र भीग गये और शरीर शीत के कारण थर थर कांपने लगा, किन्तु फिर भी जब वर्षा बन्द न हई, तब आश्रय ग्रहण करने के लिए . अनजान में वह भी उसी गुफा में चली गयी, जिसमें रथनेमि पहले से ही रहा हुआ था। वहां अन्धकार में वह रथनेमि को न देख सकी। उसने अपने भीगे हुए वस्त्रों को खोलकर उन्हें सुखाने के लिए उसी गुफा में फैला दिये। उसको वस्त्र रहित देखकर रथनेमि के हृदय में दुर्वासना का उदय हुआ। उसने काम पीड़ित हो राजीमती से कहा—"हे सुन्दरी ! मैंने पहले भी तुम से प्रार्थना की थी, और अब फिर कर रहा हूँ। आओ, हम लोग एक दूसरे को गले लगायें। विधाता ने मानो हमारे मिलन के लिए ही हम दोनों को इस एकान्त स्थान में एकत्र कर दिया है।"
राजीमती आवाज से ही रथनेमि को पहचान गयी। उसने तुरन्त अपने कपड़े उठाकर अपना शरीर ढक लिया। तदनन्तर उसने रथनेमि से कहा"हे रथनेमि! कुलीन पुरुष को ऐसी बातें शोभा नहीं देती।” तुम सर्वज्ञ भगवन्त के लघु भ्राता और शिष्य हो। फिर ऐसी कुबुद्धि तुम्हें क्यों सूझ रही है ? मैं भी सर्वज्ञ की शिष्या हूँ, इसलिए स्वप्न में भी तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण नहीं कर सकती। साधु पुरुष को तो ऐसी इच्छा भी न करनी चाहिए, क्योंकि वह नरक में डालने वाली हैं। शास्त्र का कथन है कि चैत्य द्रव्य का नाश करने, साध्वी का सतीत्व नष्ट करने, मुनि का घात करने और जिन शासन की उपेक्षा करने से प्राणी सम्यक्त्रूपी वृक्ष के मूल में अग्नि डालता है। अगन्धक कुल में उत्पन्न सर्प, जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर सकते हैं, किन्तु खुद वमन