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श्री नेमिनाथ-चरित * 395 घर जा पहुँचे। सेठ ने उनका अत्यन्त सत्कार कर भक्तिपूर्वक उनको लड्डु प्रदान किये। ढंढण लड्डु लेकर भगवान के पास आये और उनसे कहने लगे कि"हे स्वामिन् ! मालूम होता है कि मेरा अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है, क्योंकि आज मुझे अपनी लब्धि से आहार प्राप्त हुआ है।"
भगवान ने कहा- "तुम्हारा अंतराय कर्म क्षीण नहीं हुआ है। यह तो कृष्ण की लब्धि है। तुमको कृष्ण ने वन्दन किया था, इसलिए भद्रक भावी श्रेष्ठी ने तुमको आहार दिया है।" ... यह सुनकर रागादि रहित ढंढणमुनि ने उन लड्डुओं को परलब्धि मानकर उनके परहने गये, वहाँ वे अपने मन में कहने लगे—“अहो! जीवों के पूर्वोपार्जित कर्म दुरन्त होते हैं। इसी समय स्थिर ध्यान करते और भव का स्वरूप सोचते ढंढणमुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। फलत: देवताओं ने उनकी पूजा की और उन्होंने केवली की सभा में स्थान ग्रहण किया। . - एक बार नेमि प्रभु ग्राम, और नगरादिक में विहार करते हुए नापादुर्ग नामक नगर में जा पहुंचे। वहां भीम नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी • का नाम सरस्वती था, जो राजगृह के राजा जितशत्रु की पुत्री थी। सरस्वती जन्म से ही परम मूर्ख थी। इसलिए उसके पति ने भगवान को वन्दन करने के बाद उनसे प्रश्न किया कि- "भगवान् ! मेरी यह रानी इतनी मुर्खणी क्यों है।" इस पर भगवान ने कहा-“हे राजन् ! पूर्वजन्म में पद्मराज के पद्म
और चन्दना नामक दो रानियां थी। राजा ने एकदिन पद्मा से एक गाथा का अर्थ पूछा जिसे पद्मा ने सहर्ष बतला दिया। उस पर पति का अनुराग देखकर चन्दना के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हुई और उसने उस पुस्तक को ही जला दिया। इस जन्म में वही चन्दना तुम्हारी रानी हुई है और अपने उपरोक्त कर्म के कारण मूर्ख हुई है।"
यह सुनकर सरस्वती ने कहा- "हे भगवन् ! मेरा ज्ञानान्तराय कर्म .. कैसे क्षीण हो सकेगा?
भगवान ने कहा- 'ज्ञानपञ्चमी की आराधना करने से। तदन्तर भगवंत के आदेशानुसार सरस्वती ने शीघ्र ही ज्ञानपञ्चमी की