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394 * द्रोपदी-हरण नेमिभगवान से पूछा- "हे स्वामिन् ! इस नगरी में धनीमानी सेठ शाहूकार
और धार्मिक तथा उदार पुरुषों की कमी नहीं है। फिर भी यहां पर ढंढण मुनि . को भिक्षा नहीं मिलती, इसका क्या कारण है ?"
प्रभु ने कहा--"एक समय मगध देश के धान्यपूरक नामक ग्राम में पराशर नामक एक ब्राह्मण रहता था, वह राजा का प्रधानं कर्मचारी था। इसलिए उसने एकदिन ग्राम्य जनों को बेगार में पकड़कर उनसे सरकारी खेत जुतवाये। दोपहार में जब भोजन का समय हुआ, तब उस किसानों के घर से उनके लिए भोजन आया, परन्तु पराशर ने उनमें से किसी को छुट्टी न दी। उसने क्षुधित और तृषित अवस्था में ही उन किसान और बैलों से खेतों में एक . एक फेरा और लगवाया। इससे उसने अन्तराय कर्म उपार्जन किया। मृत्यु के बाद अनेक योनियों में भटककर वही पराशर ढंढण हुआ है। इस समय उसका वही कर्म उदय हुआ है, जिससे उसे भिक्षा नहीं मिल रही है।"
भगवान के यह वचन सुनकर ढंढण मुनि को संवेग उत्पन्न हुआ और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि आज से मैं परलब्धि द्वारा प्राप्त आहार ग्रहण न करूंगा। इसके बाद उन्होंने अन्य लब्धि से आहार न ग्रहण करते हुए कुछ दिन इसी तरह व्यतीत किये।
एक दिन सभा में बैठे हुए कृष्ण ने भगवान से पूंछा-“हे भगवन् ! इन मुनियों में ऐसा मुनि कौन है, जो दुष्कर तप कर रहा हो ? ____ भगवान ने कहा—“यद्यपि यह सभी मुनि दुष्कर तप करने वाले हैं, किन्तु असह्य परिषह को सहन करने वाले ढंढण इन सबों में श्रेष्ठ हैं।"
इसके बाद भगवान को प्रणाम कर कृष्ण आनन्दपूर्वक द्वारिका नगरी में प्रवेश करने लगे। मार्ग में उनकी दृष्टि ढंढणमुनि पर जा पड़ी, जो उस समय गोचरी के निमित्त नगर में भ्रमण कर रहे थे। कृष्ण ने हाथी से उतरकर अत्यन्त सम्मानपूर्वक उनको प्रणाम किया। उनका यह कार्य देखकर एक श्रेष्ठी अपने मन में कहने लगा कि- “यह कोई अवश्य ही महान मुनि हैं, तभी तो कृष्ण इनको वन्दन कर रहे हैं।"
इसके बाद गोचरी के निमित्त भ्रमण करते हुए ढंढणमुनि भी उसी सेठ के