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________________ श्री नेमिनाथ - चरित 397 किया हुआ विष कदापि पान नहीं करते । परन्तु हे नराधम ! तुझे धिक्कार है कि तूं अपनी दुवार्सना को तृप्त करने के लिए परस्त्री की कामना करता है। ऐसे "जीवन से तो तेरे लिये मृत्यु ही श्रेयष्कर है। मैं राजा उग्रसेन की पुत्री और तूं राजा समुद्रविजय का पुत्र है। हमें अगन्धन कुल के नाग की भांति वमन किया हुआ विष भोग न करना चाहिए। हे पामर ! यदि तूं अपना कल्याण चाहता है, तो निर्मल चरित्र का आचरण कर, सदाचारी बन ! कामदेव से पीड़ित होकर यदि तूं स्त्री की इच्छा करेगा, तो वायु द्वारा प्रेरित वृक्ष की भांति तूं अस्थिर बन जायगा तूं कहीं का न रह जायगा ।' राजीमती का निन्दा पूर्ण यह उपदेश सुनकर रथनेमि सम्हल गया और बार-बार पश्चात्ताप करने लगा। इसके बाद वह भोगेच्छा त्यागकर भगवंत के पास आलोचना लेकर निरतिचार चारित्र पालन करने लगा, और अन्त में उसे ज्ञान की प्राप्ति हुई । इसके बाद नेमिनाथ भगवान विचरण कर पुन: एक बार गिरनार पर्वत के सहस्राम्र वन में पधारें। उस समय कृष्ण ने पालक और शाम्ब आदिक पुत्रों से कहा—“सुबह जो सबसे पहले भगवान की वन्दना करेगा, उसे मैं मन पसन्द एक घोड़ा इनाम दूंगा । " यह सुनकर सुबह शैय्या से उठते ही शाम्ब अपने घर में बैठे ही बैठे - अत्यन्त भावपूर्वक भगवान की वन्दना करने लगा। दूसरी ओर पालक बड़ी रात रहते ही शैय्या त्याग, एक तेज घोड़े पर सवार हो, भगवान के समवसरण . में गया और वहां असभ्यता पूर्वक बड़ बड़ाते हुए उसने भगवान का द्रव्य वन्दना की। इसके बाद उसने कृष्ण के पास आकर कहा – “पिताजी ! मैंने सबसे पहले भगवान की वन्दना की है, इसलिए मुझे दर्पक अश्व इनाम दीजिए।” 66 कृष्ण ने कहा " अच्छा, मैं भगवान से पुछूंगा, यदि वे कहेंगे कि तुमने ही सबसे पहले वन्दना की है, तो मैं तुम्हें दर्पक अश्व जरूर दूंगा । " - इस बाद कृष्ण प्रभु के पास जाकर पूछा – “भगवान् ! आज सबसे पहले आपको किसने वन्दन किया था ? "
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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