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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 31 - विद्याधर ने कहा-"नहीं, अब मैं युद्ध करना नहीं चाहता। सच्चे वीर अपने विजेता का सम्मान करते हैं। मुझे भी अब अपनी पराजय स्वीकार कर तुम्हारा आदर करना चाहिए। तुमने यहाँ आकर मुझे स्त्री-वध के पाप से बचाया है, इसलिए मैं तुम्हारा चिरऋणी रहूँगा। वास्तव में तुमने मुझसे युद्ध कर मेरा अपकार नहीं, उपकार ही किया है। परन्तु अब मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे वस्त्र में एक मणी और कुछ जड़ी बूटी बँधी हुई है, मणि को जल में डुबोकर उसी जल से उन जड़ी बूटियों को घिस कर जख्मों पर लगाने से मैं पूर्णरूप से स्वस्थ हो जाऊँगा। दयाकर इतना उपकार और कीजिए, फिर मैं सहर्ष अपना रास्ता लूँगा।" यह सुनकर राजकुमार ने बड़ी खुशी के साथ विद्याधर का इलाज किया। बड़ी को घिसकर लगाते ही उसके सब जख्म अच्छे हो गये और ऐसा मालूम होने लगा मानो कुछ हुआ ही न था। उसे स्वस्थ देखकर राजकुमार ने पूछा. "क्या आप अपना और इस स्त्री का परिचय देने की कृपा करेंगे?" विद्याधर ने कहा-“मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं। यदि आप यह सब बातें सुनना चाहते हैं तो सहर्ष सुनिये। मैं श्रीषेण नामक विद्याधर का पुत्र हूँ। मेरा नाम सुरकान्त है। यह स्त्री रथनुपुर नगर के राजा अमृतसेन की कन्या है। इसका : नाम रत्नमाला है। एक बार एक ज्ञानी ने बतलाया था कि हरिनन्दी राजा के अपरांजित नामक राजकुमार से इसका ब्याह होगा। तब से वह मन-ही-मन उसी को प्रेम करती थी। दूसरे की ओर आँख उठाकर देखती तक न थी, संयोगवश एक बार मैंने इसे देख लिया, मुझे इच्छा हुई कि इससे ब्याह करना • चाहिए, इसलिये मैंने इससे पाणिग्रहण की प्रार्थना की, किन्तु इसने मेरी प्रार्थना को ठुकराते हुए कहा-“या तो अपराजित ही मेरा पाणिग्रहण करेंगे या अग्निदेव ही अपनी गोद में मुझे स्थान देंगे। इन दो के सिवा मेरे शरीर की तीसरी गति नहीं हो सकती।” इसका यह उत्तर सुनकर मुझे क्रोध आ गया और मैं यहाँ इस मन्दिर में आकर दुःसाध्य विद्या की साधना करने लगा। इसके बाद मैंने फिर कई बार इससे प्रार्थना की, किन्तु जब इसने मेरी एक न सुनी, तब मैं इसका हरण कर इसे यहाँ उठा लाया। मैं कामान्ध हो गया था। मेरी विचार शक्ति नष्ट हो गयी थीं। इसलिए मैं इसके टुकड़े कर अग्निकुण्ड में डाल देने की तैयारी कर रहा था। इतने ही में यहाँ आकर आपने इसकी प्राण-रक्षा की, साथ ही मुझे भी
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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