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श्री नेमिनाथ-चरित * 387 पाथड़े में ज़ायगा और वैतरणि वैद्य विन्ध्याचल में वानर होगा। वहीं यौवन प्राप्त होने पर वह यूथ पति होगा। उसी वन में एक बार सार्थ के साथ अनेक साधु आयेंगे, उनमें से एकसाधु के पैर में कांटा लग जायगा। अन्यान्य साधुओं को अपनी प्रतिक्षा करते देख वह साधु उनसे कहेगा कि आप लोग मुझे यहीं छोड़ कर चले जाइए, वर्ना सार्थ से अलग होकर आप लोग संकट में पड़ जायेंगे। __साधु लोग उसका कांटा निकालने में अपने को असमर्थ पाकर अन्त में निराश हो जायेंगे और उसको उसी स्थान में छोड़कर सार्थ के साथ आगे निकल जायेंगे। उनके चले जाने पर यूथ पति वानर वहां आयगा। उसके संगी समस्त वानर उस मुनि को देखकर किलकारियाँ मारने लगेंगे, इससे वह यूथ पति रुष्ट होकर मुनि के पास आयगा, परन्तु उनको देखते ही वह अपने मन में कहने लगेगा कि शायद इस मनुष्य को मैंने पहले भी कहीं देखा है। इस प्रकार का चिन्तन करते करते उसे अपने वैद्य जीवन की याद आयगी और वह पर्वत से विशल्या तथा रोहिणी नामक औषधियों को लाकर विशल्या को अपने दांत से चबाकर उस साधु के पैर पर लगायगा, जिससे मुनि का पैर शल्य रहित बन जायगा। इसके बाद उस जखम को भरने के लिए वह उस स्थान में रोहिणी नामक औषधि लगायगा, जिससे मुनिराज पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जायेंगे। ... इसके बाद वह वानर मुनिराज के सामने भूमि पर लिखकर उनसे कहेगा, कि मैं पूर्वजन्म में द्वारिका नगरी में वैतरणि नामक वैद्य था। यह सुनकर मुनिराज उसे धर्मोपदेश देंगे, जिससे उस वानर को ज्ञान उत्पन्न होगा और वह तीन दिन अनशन कर सहस्रार देवलोक में जायगा। उसी समय अवधिज्ञान से वह मुनिराज को देखकर उनसे कहेगा, कि-हे परोपकारी मुनीन्द्र! आपके प्रसाद से मुझे यह उत्तम देव समृद्धि प्राप्त हुई है।" इतना कह वह देव उन मुनिराज को लेकर आगे गये हुए साधुओं से मिला देगा। तदनन्तर मुनिराज अन्य साधुओं से उस वानर की कथा कहेंगे।"
नेमि भगवान के मुख से यह वृत्तान्त सुनने के बाद, कृष्ण उन्हें प्रणाम कर अपने वासस्थान को चले गये और भगवान वहां से विहार कर अन्यत्र के लिए प्रस्थान कर गये।