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386 + द्रोपदी-हरण रोग आराम हो जायगा। इसलिए मैं आपसे याचना करता हूँ कि मुझसे लाख रुपये लेकर इस भेरी का एक छोटा सा टुकड़ा मुझे दे दो।"
लाख रुपये का नाम सुनकर भेरी रक्षक के मुंह में पानी भर आया। उसने . भेरी का एक टुकड़ा, उसे देकर, उस जगह चन्दन की लकड़ी भर दी। इसके बाद उस भेरी रक्षक का यही व्यवसाय हो गया। उसने एक एक करके अनेक आदमियों के हाथ अत्यधिक मूल्य लेकर इसी तरह कई टुकड़े कर बेच दिये। इससे उस भेरी में अनेक छिद्र हो गये और उसमें चन्दन काष्ट भरते भरते.. उसकी वास्तविक शक्ति भी नष्ट हो गयी।
कई दिनों के बाद एक बार फिर द्वारिका में रोग का प्रकोप हुआ। . इसलिए कृष्ण ने भेरीरक्षक को बुलाकर उसे भेरी बजाने की आज्ञा दी, परन्तु : उस भेरी का स्वर इतना क्षीण हो गया था, कि वह समीप के आदमियों को भी सुनायी न देता था। यह देख, कृष्ण ने इसका कारण जानने के लिए उस भेरी को अपने पास मंगवाकर देखा, तो उन्हें भेरी रक्षक की धूर्तता का हाल मालूम हुआ। इससे उन्हें उस पर बड़ा ही क्रोध आया और उन्होंने उसी समय उसे प्राणदण्ड दे दिया। इसके बाद उन्होंने अट्ठम तप द्वारा उस देवता को पुन: प्रसन्न कर उससे दूसरी भेरी प्राप्त की और उसे नगर में बजवाकर जनता को रोग से छुटकारा दिलवाया।
इस दैवी भेरी के अतिरिक्त जनता की चिकित्सा के लिए कृष्ण ने धन्वन्तरि और वैतरणि नामक दो वैद्य भी नियुक्त कर दिये थे। इनमें से वैतरणि भव्य जीव था, इसलिए वह लोगों की चिकित्सा में सदा दत्तचित्त रहता था
और किसी को औषधि देने में आलस्य न करता था, किन्तु धनवन्तरि पाप सहित चिकित्सा करता था, फलत: लोग उससे सन्तुष्ट न रहते थे। वह अनेक बार मुनियों से भी छल पूर्वक कह दिया करता था, कि मैं साधुओं के योग्य कोई आयुर्वेद नहीं पढ़ा, इसलिए आप लोग अन्यत्र अपनी चिकित्सा करा सकते हैं।
एक बार कृष्ण ने नेमिभगवान से पूछा- “हे भगवन् ! इन दोनों वैद्यों की कौनसी गति होगी?"
भगवान ने कहा- “धन्वन्तरि वैद्य सातवें नरक के अप्रतिष्ठान नामक