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श्री नेमिनाथ - चरित + 383 उसे अत्यन्त दुःख हुआ। इसके बाद आयु पूर्ण होने पर उन दोनों स्त्रियों की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के बाद, नरक, निगोद और तिर्यञ्च योनि में भ्रमण करने "के बाद अकाम निर्जरा के योग से कितने ही कर्मों का क्षय करने के बाद उन दोनों को पुनः मनुष्य जन्म की प्राप्ति हुई। मनुष्य जन्म के बाद दोनों को पुण्ययोग से देवत्व प्राप्त हुआ, और वहां से च्युत होने पर वह बालक इस जन्म में सोम शर्मा हुआ और स्त्री का जीव गजसुकुमाल हुआ। यहां भी पूर्वजन्म के वैर से गज सुकुमाल को देखते ही सोमशर्मा को क्रोध आ गया और उसने उस पर प्रहार किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । हे कृष्ण ! सच बात तो यह है कि पूर्वजन्म के उपार्जित कर्म अन्यथा नहीं होते ।”
इस प्रकार प्रभु के मुख से गजसुकुमाल के पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनने और भवस्वरूप को जानने पर भी महामोह के कारण कृष्ण का दुःख दूर न हुआ और उन्होंने रोते ही रोते उसके संस्कारादि किये। इसके बाद नगर में प्रवेश करते समय उन्होंने सोमशर्मा को मरा हुआ देखा। इससे उनका रोष कुछ कुछ शान्त हो गया। किन्तु उन्होंने उसके पैर में रस्सी बँधवाकर उसे समूचे नगर में घसीटवाया और उसके शव को नगर के बाहर फिंकवा दिया, जहां ची और गृद्धों ने उसे अपना आहार बना डाला।
गज़सुकुमाल के शोक से वसुदेव को छोड़कर शेष नव दर्शाहों ने भगवान के निकट दीक्षा ले ली। भगवान की माता शिवादेवी, सात भाई, कृष्ण के अनेक कुमार, राजीमती, एक नासापुट वाली नन्द कन्या तथा और
अनेक स्त्रियों ने श्रीनेमि के निकट दीक्षा ले ली। कृष्ण ने अपनी 'कन्याओं का विवाह न करने का अभिग्रह लिया, इसलिए उनकी समस्त कन्याओं ने भी दीक्षा ले ली। कनकवती, रोहिणी और देवकी को छोड़कर वसुदेव की समस्त स्त्रियों ने संयम ग्रहण किया । भवस्थिति का विचार करते हुए घर पर ही कनकवती के समस्त घाति कर्म क्षय हो गये और उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। भगवान को हाल मालूम होने पर उनके आदेशानुसार देवताओं ने उसका महोत्सव मनाया। इसके बाद दीक्षा ग्रहण कर वे प्रभु की सेवा में उपस्थित हुई और उनके दर्शनकर वन में जाकर तीस दिन तक अनशन किया, जिसके फल स्वरूप वह मोक्ष की अधिकारिणी हुई ।