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श्री नेमिनाथ-चरित * 381 के लिए गजसुकुमाल को उससे भी ब्याह करना पड़ा। . उस ब्याह के कुछ ही दिन बाद सहस्राम्रवन में नेमिप्रभु का शुभागमन हुआ। उनके आगमन के समाचार सुन गजसुकुमाल भी स्त्रियों सहित उनकी सेवा में उपस्थित हो, बड़े प्रेम से उनका धर्मोपदेश सुनने लगा। धर्मोपदेश सुनकर उसे वैराग्य आ गया, फलत: बड़ी कठिनाई से माता पिता और भाईयों को समझाकर, उसने दोनों स्त्रियों सहित प्रभु के निकट दीक्षा ले ली। उसके इस कार्य से उसके माता पिता तथा कृष्णादिक भाइयों को बड़ा ही दुःख हुआ और वे उसके वियोग से व्याकुल हो विलाप करने लगे।
इसके बाद संध्या के समय भगवान की आज्ञा लेकर गजसुकुमाल श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग करने लगा। उस समय सोमशर्मा ने बाहर गांव से आते हुए उसे देख लिया। देखते ही उसके बदन में मानों आग लग गयी। वह क्रोध पूर्वक अपने मन में कहने लगा कि- “इस पाखण्डी दुराशय को यदि दीक्षा लेनी थी, तो इसने मेरी पुत्री से विवाह कर उसका जीवन क्यों नष्ट कर दिया?"
गजसुकुमाल और उसमें पूर्व जन्म का वैर था, इसलिए इसी तरह के अत्यान्य विचारों ने उसकी क्रोधाग्नि को और भी भडका दिया। अन्त में · क्रोधावेश के कारण, मुनि के मस्तक पर मिट्टी की पाल बांधकर चिता की
अग्नि से मस्तक भर दिया। इससे गजसुकुमाल की खोपड़ी जल उठी परन्तु . समाधि द्वारा उसने यह सब सहन कर लिया। इसके बाद कर्म रूपी इन्धन को भस्म कर, उसी रात्रि में केवलज्ञान की प्राप्ति कर वह मोक्ष का अधिकारी हो गया। उसने वह शरीर त्याग दिया। - उधर कृष्णादिक चिन्ता में पड़ गये। बड़ी कठिनाई से रात्रि व्यतीत की। किसी तरह सवेरा होते ही गजसुकुमाल को देखने के विचार से कृष्ण सपरिवार रथ में बैठकर भगवान को वन्दन करने के लिए समवसरण की ओर चलने · लगे। नगर से बाहर निकलते ही उन्होंने एक वृद्ध ब्राह्मण को देखा, जो ईंटें उठा-उठाकर एक देवमन्दिर में लिये जा रहा था। कृष्ण को उस पर दया आ गयी, इसलिए उनके प्रति सहानुभूति दिखलाते हुए वे भी भट्टे से एक ईंट उठाकर उस देवमन्दिर में रख आये। कृष्ण के पीछे हजारों आदमियों का झुण्ड