SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 380 * द्रोपदी-हरण पुत्र उत्पन्न हो, उसे रमा खिलाकर वह अपनी साध पूरी कर लें। इसी विचार से वह रातदिन चिन्तित रहने लगी। उसकी यह अवस्था देखकर एक दिन ... कृष्ण ने पूछा- “हे माता! कुछ दिनों से तुम उदास क्यों रहती हो?" . देवकी ने खिन्नता पूर्वक उत्तर दिया- “यह मेरा अहो भाग्य है, जो मेरे सभी पुत्र अब तक जीवित है, परन्तु मुझे इतने ही से सन्तोष नहीं हो सकता। तुम नन्द के गोकुल मे बड़े हुए और तुम्हारे छ: भाई सुलसा के यहां लालित पालित हुए हैं। मुझे तो कोदल की भांति अपने एक भी पुत्र का लालन पालन करने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ। मैंने अपने एक भी पुत्र को स्तन पान न कराया। हे कृष्ण ! इसलिए मेरे हृदय में एक पुत्र की इच्छा उत्पन्न हुई है। मैं तो उन पशुओं को भी धन्य समझती हूँ, जो अपने बच्चों को खिलाते हैं। सात. पुत्रों की माता होकर भी मैं मातृत्व के इस स्वर्गीय सुख से वंचित रह गयीं।" . ___माता के यह वचन सुनकर कृष्ण ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा-"हे माता! आप धैर्य धारण करें। मैं आपकी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा। - इतना कह, कृष्ण माता के पास से चले आये। इसके बाद वे शीघ्र ही अट्ठम तप द्वारा इन्द्र के सेनापति हरिणेगमेषी देव की आराधना करने लगे। इस पर हिरिणेगमेषी ने प्रकट होकर कहा—“हे कृष्ण! आपकी इच्छानुसार आपकी माता के आठवां पुत्र अवश्य होगा, परन्तु पुण्यात्मा होने के कारण यौवन प्राप्त होते ही वह दीक्षा ले लेगा।" कृष्ण ने इसमें कोई आपत्ति न की, इसलिए वह देव कृष्ण को वैसा वर देकर अन्तर्धान हो गया। इसके बाद शीघ्र ही देवलोक से एक महर्द्धिक देव च्युत होकर देवकी के उदर से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। देवकी ने उसका नाम गजसुकुमाल रक्खा। कृष्ण के समान उस देवकुमार बालक को देवकी ने खूब खिलाया और जी भर उसका दुलार प्यार किया। क्रमश: जब वह बालक बड़ा हुआ और उसने युवावस्था में पदार्पण किया, तब वसुदेव ने दुमराजा की प्रभावती नामक सुन्दर कन्या से उसका विवाह कर दिया दूसरी और कृष्णादिक भाईयों ने तथा माता देवकी ने सोमा नामक एक कन्या से विवाह करने के लिए उस पर जोर डाला, सोमा सोमशर्मा की पुत्री थी और एक क्षत्राणी के उदर से उत्पन्न हुई थी। इच्छा न होने पर भी माता और भाइयों की बात मानने
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy