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श्री नेमिनाथ-चरित * 379 संघाटक में हम लोग यहां आ रहे हैं। पहले चार जन, जिन्हें आप आहार वहोराया हैं, वे हमारे भाई थे। हम लोग उनसे अलग हैं। ___ यह सुनकर देवकी ने उन दोनों को भी उसी तरह मोदक वहोराया। उनके चले जाने पर वह अपने मन में कहने लगी-"यह छ: भाई रूप रंग में कृष्ण के ही समान क्यों प्रतीत होते हैं ? सृष्टि के साधारण नियमानुसार तो एक तिल भी दूसरे तिल के समान नहीं होता। हां, अतिमुक्तक मुनि ने मुझे जीवित आठ पुत्रों की माता बतलाया था। क्या यह छ: मेरे वह पुत्र तो न होंगे, जिन्हें मैं मरे हुए समझती हूँ ?"
उस दिन देवकी इसी बात पर विचार करती रही, किन्तु कुछ निश्चय न कर सकी। दूसरे दिन इस शंका का निराकरण करने के लिए वह समवसरण में नेमिनाथ भगवान के पास गयी। भगवान ने उसका भाव जानकर कहा-"हे देवकी! यह छ: तुम्हारे ही पुत्र हैं। हरिणेगमेषी देव ने इन्हें जीवितावस्था में ही सुलसा को दे दिये थे।
- आन्तरिक प्रेम के कारण देवकी के स्तनों से दुग्ध की धार पहले ही से स्रवित हो रही थी। अब भगवान का वचन सुनकर उसे पूर्णरूप से विश्वास हो गया कि वे सब उसी के पुत्र हैं। उसने उनको वन्दन करके कहा-“हे पुत्रों! यह मेरा परम सौभाग्य है, जो मैं तुम्हें देख सकी हूँ। मेरे पुत्र चाहे राजसिंहासन के अधिकारी हो, चाहे उन्होंने दीक्षा ले ली है, मेरे लिये वह सब समान है। किन्तु दु ख का विषय यह है, कि तुममें से एक को भी मैं अपनी गोद में बैठाकर तुम्हारा दुलार नहीं कर सकी।"
- इस पर भगवान ने कहा— “हे देवकी! इस बात के लिए तुझे वृथा खेद न करना चाहिए। यह तेरे पूर्व जन्म के कर्म का फल है, जो, इस जन्म में उदय हुआ है। पूर्व जन्म में तूने अपनी सपत्नी (सौत) के सात रत्न ले लिये
थे। इससे वह बहुत रोने लगी तब तूने एक रत्न उसे वापस दे दिया था। यह . उसी कर्म का फल है।" .... भगवान के मुख से यह हाल सुनकर देवकी अपने पूर्व पाप की निन्दा करती हुई अपने वासस्थान को लौट आयी। किन्तु उसी समय से उसके हृदय में एक नयी अभिलाषा उत्पन्न हो गयी। वह चाहने लगी कि उसके एक और