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श्री नेमिनाथ - चरित 377
मन में कहने लगे — “ अहो ! पाण्डव कितने समर्थ है, जो बिना नौका के ही यह नदी पार कर गये। मैं तो बीच ही में थक गया । "
इधर गंगा ने जब देखा कि कृष्ण थक गये हैं, तब उसने थोड़ी देर के लिये अपना जल घटाकर उनके लिये मार्ग बना दिया । कृष्ण उसी मार्ग द्वारा आसानी से नदी के इस पार आ पहुँचे। वहां पूछताछ करने पर पाण्डवों ने उनसे बतलाया कि हम लोगों ने तो नौका द्वारा नदी पार की थी। इस पर कृष्ण ने पूछा - " वही नौका फिर मेरे लिये क्यों न भेज दी ?"
पाण्डवों ने हँसकर कहा- " हम लोग आपका बल देखना चाहते थे, इसलिए हमने नौका न भेजी थी । "
यह सुनते ही कृष्ण ने कहा- " तुमने समुद्र पार करने में, अमर कंका में पद्म राजा को जीतने में बल नहीं देखा ? जो अब बल देखने का कार्य किया। फिर क्रोधित होकर लौह दण्ड से उनके रथ तोड़ फोड़ दिये। जिस स्थान पर कृष्ण ने यह कार्य किया, उसी स्थान पर आगे चलकर रथमर्दन नामक नगर आबाद हुआ। इसके बाद पाण्डवों को देश से निर्वासित कर, कृष्ण अपनी सेना के साथ द्वारिका नगरी को लौट आये।
पाण्डवों ने अपने नगर में जाकर माता कुन्ती से यह सब हाल कह सुनाया। इस पर कुन्ती ने द्वारिका में आकर कृष्ण से कहा---' -" आपने मेरे पुत्रों को निर्वासन का जो दण्ड दिया है, उसके सम्बन्ध में मैं आपसे कुछ नहीं कहना चाहती, परन्तु मुझे यह तो बतलाइए कि वे अब कहां रहें? क्योंकि अर्धभरत में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जिस पर आपका अधिकार न हो !”
कृष्ण का क्रोध अभी शान्त न हुआ था, फिर भी कुन्ती के कारण पाण्डवों पर दया आ गयी। इसलिए उन्होंने कहा – “दक्षिण समुद्र के तटपर पाण्डु मथुरा नामक नयी नगरी बसाकर वे लोग वहां खुशी से रह सकते हैं । "
कृष्ण की यह आज्ञा कुन्ती ने पाण्डवों को कह सुनायी । तदनुसार पाण्डव शीघ्र ही दक्षिण समुद्र के तट पर चले गये और वहीं पर पाण्डु नगर बसाकर निवास करने लगे। इधर कृष्ण ने हस्तिनापुर में अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को गद्दि पर बैठा दिया।