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372 * द्रोपदी-हरण
सुस्थितदेव ने ऐसी ही व्यवस्था कर दी, पाण्डवों सहित कृष्णं समुद्र पार कर पद्मनाभ की राजधानी अमरकंका नगरी में जा पहुँचा वहां पर सब लोग नगर के बाहर एक उद्यान में ठहर गये। कृष्ण ने युद्ध घोषणा करने के पहले पद्मनाभ को एक दूत द्वारा सन्देश भेज देना उचित समझा। उन्होंने इस कार्य के लिए दारुक सारथी को उपयुक्त समझकर, उसे सब मामला समझाकर, एक पत्र देकर, पद्मनाभ के पास जाने का आदेश दिया।
सारथी दारुक विशालकाय तो था ही, इस समय ललाट पर त्रिवलि डाल लेने और भूकुटियों को वक्र बना लेने के कारण वह देखने में और भी भयंकर प्रतीत होने लगा। उसने यथासमय पद्मनाभ की सभा में उपस्थित हो कृष्ण का पत्र उसके हाथ में रक्खा। साथ ही उसने पद्मनाभ से कहा—“हे . राजन्! यह तो आप जानते ही होंगे, कि कृष्ण के साथ पाण्डवों की अत्यन्त घनिष्ठता है। इसलिए किसी भी मामले में वे एक दूसरे से पृथक नहीं किये जा सकते। आप पाण्डवों की पटरानी द्रौपदी को जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र से हरण कर लाये हैं। उसी को पुन: प्राप्त करने के लिए कृष्ण पाण्डवों सहित, स्थल की भांति समुद्र को पार कर यहां आये हुए हैं। यदि आप अपना कल्याण चाहते हो, तो शीघ्र ही उस सती को उन्हें सौंप दीजिए अन्यथा मेरे स्वामी के इस पत्र को रण निमन्त्रण समझिए।"
दारुक के यह वचन सुनकर पद्मनाभ को बड़ा ही क्रोध आया, वह कहने लगा—“हे दारुक! तेरे कृष्ण भरत के वासुदेव हैं, न कि यहां के। मैं उनको अपने सामने कुछ भी नहीं समझता। मुझे रण निमन्त्रण स्वीकार है। तुम अपने स्वामी के पास जाकर युद्ध के लिए तैयार करो।"
यह उत्तर सुनकर दारुक कृष्ण के पास लौट आया और कृष्ण को सब हाल कह सुनाया उसके पीछे ही पद्नाभ भी अपनी सेना के साथ वहां आ धमका। शत्रु सेना को अपनी ओर आते देखकर कृष्ण ने पाण्डवों से पूछा“मालूम होता है कि पद्मनाभ युद्ध करने के लिए हम लोगों की ओर आ रहा है। मैं जानता चाहता हूँ कि आप लोग उससे युद्ध करेंगे या अपने-अपने रथ पर बैठकर मुझे युद्ध करते हुए देखेंगे?"
पाण्डवों ने कहा-“हे प्रभो! पद्मनाभ के साथ हम लोग स्वयं युद्ध. करेंगे और देखेंगे कि पद्म राजा है या हम हैं ? .