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उन्नीसवाँ परिच्छेद द्रोपदी-हरण
इधर पञ्च पाण्डवों पर जब से कृष्ण की कृपा दृष्टि हुई, तबसे उनके समस्त दु:ख दूर हो गये । अब वे आनन्द पूर्वक हस्तिनापुर में रहते हुए द्रौपदी के साथ भोग विलास करते थे। एक दिन कहीं से घुमते घामते नारदमुनि द्रौपदी के घर आ पहुँचे। द्रौपदी ने उनको अविरति समझकर न तो उनको सम्मान ही दिया, न उनका आदर सत्कार ही किया। इससे नारदमुनि क्रुद्ध हो उठे और द्रौपदी को किसी विपत्ति में फँसाने का विचार करते हुए उसके महल से बाहर निकल गये।
नारद ने सोचा कि यदि किसी के द्वारा द्रौपदी का हरण करा दिया जाय तो मेरी मनोकामना सिद्ध हो सकती है। परन्तु पाण्डव कृष्ण के कृपापात्र थे, इसलिए नारद अच्छी तरह समझते थे कि उनके भय से भरतक्षेत्र में कोई द्रौपदी का हरण करने को तैयार न होगा। निदान, बहुत कुछ सोचने के बाद वे घातकी खण्ड के भरतक्षेत्र में गये। वहां पर अमरकंका नगरी में पद्मनाभ नामक राजा राज्य करता था, जो चम्पानगरी के स्वामी कपिल वासुदेव का सेवक था। नारद को देखते ही वह खड़ा हो गया और उनका आदर सत्कार कर उन्हें अपने अन्त:पुर में लेकर गया वहां अपनी रानियों को दिखाकर उसने नारद से पूछा- “हे नारद! क्या ऐसी सुन्दर स्त्रियाँ आपने और भी कहीं देखी हैं?"
नारदमुनि ने हँसकर कहा-“हे राजन् ! कूप मण्डूक की भांति तुम इन स्त्रियों को देखकर व्यर्थ ही आनन्दित होते हो। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में