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________________ 366 * नेमिनाथ भगवान की बल-परीक्षा सड़ा गला अन्न वह पदार्थ निषिद्ध माने गये हैं। श्रावक को यत्नपूर्वक इतना त्याग करना चाहिए। जो दयावान श्रावक भोजन में भी इस विचार को स्थान देता है, वह धीरे-धीरे इस संसार सागर को पार कर जाता है।" भगवान का यह उपदेश सुनकर राजा वरदत्त को परम वैराग्य आ गया और वह दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हो उठा। इतने ही में कृष्ण ने प्रभु को प्रणाम करके पूछा- “हे प्रभो! यद्यपि आपको सभी लोग प्रेम करते हैं, तथापि राजीमती आप पर विशेष अनुराग रखती है, उसका क्या कारण है ?" भगवान ने इस प्रश्न के उत्तर में धन और धनवती के जन्म से लेकर अपने आठ जन्मों का वृत्तान्त और उसके साथ का अपना सम्बन्ध भी सबको कह सुनाया। इसके बाद वरदत्त राजा ने खड़े होकर हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना कि—“हे नाथ! जिस प्रकार स्वाति नक्षत्र का जल उस सीप में गिरने से वह मुक्ताफल हो जाता है, उसी प्रकार आपसे प्राप्त श्रावकधर्म भी प्राणियों के लिए महा फलदायक होता है। मैंने आपको गुरु मान लिया है और आपके श्रीमुख से श्रावक धर्म के लक्षण सुनकर उसे ग्रहण कर लिया है, तथापि मुझे इतने ही से सन्तोष नहीं है। कल्पवृक्ष हाथ लगने पर केवल हाथ के ही पात्र में वस्तु लेकर भला कौन सन्तोष मान सकता है ? इसलिए हे प्रभो! मैं आपका प्रथम शिष्य होना चाहता हूँ। आप मुझ पर दया कर संसार सागर से पार लगाने वाली दीक्षा मुझे दीजिए।" राजा वरदत्त की यह अभिलाषा देखकर प्रभु ने उसे दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। इसके बाद और भी दो हजार क्षत्रियों ने उनके निकट दीक्षाग्रहण की। धन के जन्म में धनदत्त और धनदेव नामक जो भाई थे और अपराजित के जन्म में विमलबोध नामक जो मन्त्री था, वे तीनों भगवान के साथ संसार में भ्रमण करते हुए इस जन्म में राजा हुए थे। वे तीनों इस समवसरण में आये थे। भगवान के मुख से राजीमती के पूर्व जन्मों का वृत्तान्त सुनते समय उनको जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ और वैराग्य आ जाने के कारण उन्होंने भी भगवान के निकट दीक्षा ले ली। भगवान ने उन तीनों के साथ वरदत्तादिक ग्यारह (अढ़ार) को गणधर
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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