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. श्री नेमिनाथ-चरित * 365 उपकारी, जन्म से ब्रह्मचारी, करुणा रूपी लता के लिए जलधर के समान तथा भव्य जीवों के रक्षक आप को नमस्कार है। प्रभो! आपने भाग्यवश चौवन दिन में ही शुक्ल ध्यान से घातिकर्मों को क्षय किया है। हे नाथ! आपने न केवल यदुकुल को ही विभूषित किया है, परन्तु अपने सूर्य समान केवलज्ञान से तीनों लोक को अलंकृत किया है। हे जिनेन्द्र! हे यदुकुल गगन दिवाकर! यह भवसागर अथाक होने पर भी आपके पाद प्रसाद से वह नि:संदेह गोष्पद मात्र प्रतीत होने लगता है। हे तीर्थनाथ ! हे यदुवंशमण्डन ! ललनाओं के लालित्व से सभी का चित्त विचलित हो उठता है, परन्तु यदि किसी का हृदय वज्र समान अभेद्य हो तो वह तीनों लोक में आप ही का है। हे स्वामिन् ! आपको व्रत लेने से रोकने के लिए जो चेष्टा की थी, उसका इस समय आपकी यह सम्पत्ति देखते हुए. हमें अत्यन्त पश्चात्ताप हो रहा है। यह अच्छा ही हुआ कि आपके स्वजनों को आपके मार्ग में बाधक होने में सफलता न मिल सकी। अब जगत के पुण्य से उत्पन्न अखण्ड केवलज्ञान वाले हे प्रभो! संसार सागर के पतन से हमारी रक्षा कीजिएं हम चाहे जहां हो, चाहे जो कार्य करते हो, पर आप हमारे हृदय में सदा विराजमान रहें। यही एकमात्र हमारी आन्तरिक अभिलाषा है। इसके सिवाय 'हमें और किसी वस्तु की जरूरत नहीं है।" ... कृष्ण की यह स्तुति पूर्ण होने पर, भगवान ने सब लोगों को धर्मोपदेश देते हुए कहा- "हे भव्य प्राणियों! जीवों की समस्त सम्पदा विद्युत से भी अधिक चपल है, संयोग स्वप्नों के समान हैं, यौवन वृक्षों की छाया के समान चंचल है, प्राणियों के शरीर भी जल बुंदवत् हैं, इसलिए इस असार संसार में . सार रूप वस्तु कुछ भी नहीं है। केवल दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आचरण ही सार है। नवतत्वों पर श्रद्धा रखना सम्यग् दर्शन कहलाता है। भली भांति उन तत्त्वों का बोध होना ज्ञान कहलाता है। सावद्ययोग से विरमण और मोक्ष का कारण रूपं चारित्र बतलाया गया है। यह चारित्र पालन साधुओं को सर्वथा और गृहस्थों को देश से होता है। जो देशचारित्र में व्यस्त रहता है, विरतियों की सेवा करता है और संसार के स्वरूप को जानता है, वह श्रावक कहलाता है। श्रावक के लिए मद्य, मांस, मक्खन, मधु, पांच प्रकार के गूलर, अनन्तकाय, अनजाने फल, रात्रि भोजन, कच्चे गोरस (दूध दही या मठा) में मिलाया हुआ द्विदल अन्न, वासी भात, दो दिन से अधिक समय का दही और