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श्री नेमिनाथ-चरित * 363 रथनेमी के ये वचन सुनते ही राजमती को उसके पहले के व्यवहार की बातें याद आ गयी। उसके हृदय में तो नाम मात्र के लिए भी विकार न था, इसलिए उसने धर्मोपदेश द्वारा उसे समझाने की बहुत चेष्टा की, परन्तु इसका कोई फल न हुआ। रथनेमि बराबर उसके पास आकर उसे अपनी बात पर राजी करने की चेष्टा करता रहा।
राजीमती ने जब देखा कि उस पर कोई असर नहीं होता, तब उसने एक दूसरी ही युक्ति से उसे समझाने का विचार किया और एक दिन जब रथनेमि के आने का समय हुआ, तब उसने खुब पेट. भरकर दूध पी लिया। इसके बाद ज्योंही रथनेमि आया, त्योंही उसने कय करानेवाला मदन फल सूंघ लिया। मदन फल सूंघते ही उसे कय होने लगी। यह देखकर उसने रथनेमि से कहा-“जल्दी एक सुवर्ण थाल ले आ!" रथनेमि उसी समय नौकर की भांति एक थाल उठा लाया, और उसी थाल में राजीमती ने वह सब दूध वमन कर दिया। . इसके बाद राजीमनी ने रथनेमि से कहा- “हे रथनेमि! तूं इसे पी जा।"
रथनेमि ने चिढ़कर कहा—“क्या मैं कुत्ता हूं, जो तुम मुझ से वमन पान करने को कहती हो।" ___राजीमती ने पूछा- “क्या तूं इसे पीने योग्य नहीं समझता है?"
रंथनेमि ने कहा—“मैं क्या, यह तो बालक भी बतला सकते हैं, कि यह पीने योग्य नहीं है।"
- राजीमती ने कहा- “यदि तूं यह जानता है, तो नेमिकुमार की वमन (त्याग) की हुई मुझको फिर क्यों भोगना चाहता है ? तूं नेमिकुमार का भाई है, इसलिए तुझे तो और भी ऐसे कार्य से दूर रहना चाहिए। जा, अब नरक में डालने वाला ऐसा प्रस्ताव स्वप्न में भी मेरे सामने मत करना।"
राजीमती के मुख से अपनी यह निन्दा सुनकर रथनेमि अत्यन्त लज्जित हुआ और वह मन ही मन पश्चात्ताप करता हुआ चुपचाप अपने घर चला गया। इधर राजीमती की लगन तो नेमि भगवान् से ही लगी हुई थी, इसलिए वह उन्हीं के ध्यान में पूर्ववत् अपने दिन व्यतीत करने लगी।