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362 * नेमिनाथ भगवान की बल-परीक्षा देवदूष्य वस्त्र रखा। इसके बाद शक्र वह केश क्षीरसागर में डाल आये। वहां से वापस आने पर उन्होंने जब लोगों का कोलाहल शान्त किया, तब भगवान ने सर्वविरति सामायिक व्रत ग्रहण कर लिया। उस समय जगद्गुरु को चौथा मन: पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ, और नारकी जीवों ने भी क्षणभर सुख अनुभव किया। नेमिकुमार के साथ और भी एक हजार राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद इन्द्र तथा कृष्णादिक नेमिभगवान को वंदन कर अपने स्थान को वापस चले गये।
दूसरे दिन भगवान ने गोष्ठ में जाकर वरदत्त ब्राह्मण के यहां, परमान्न क्षीर द्वारा पारणा किया। उस समय गन्धोदक वृष्टि, दुंदुभी नाद, वस्त्रवृष्टि और धनवृष्टि ये दिव्य प्रकट कर देवता लोग वारंवार आकाश से अहोदानं! अहोदानं! कहने लगे! उसके बाद भगवान, जो संसार के बन्धन से निवृत्त हो चुके और घाति कर्म का क्षय करने में सचेष्ट होकर, अन्य स्थान में विहार कर गये।
इधर नेमिनाथ भगवान का छोटा भाई रथनेमि राजीमती को देखकर उस पर आशिक हो गया था। इसलिए वह उसे अपने हाथ में करने के लिए नित्य अच्छी चीजें उसके पास भेजने लगा। भोली भाली राजीमती उसके भाव को न समझकर वह सब चीजें स्वीकार करने लगी। उसने समझा कि अपने भाई के स्नेह के कारण ही यह मुझ से प्रेम करता है। उधर रथनेमि ने यह मान लिया कि, राजीमती अनुराग के ही कारण मेरी सब चीजें ग्रहण करती हैं। इसलिए वह नित्य राजीमती के घर आने जाने लगा और भौजाई के नाते उससे दिल्लगियां करने लगा।
एक दिन एकान्त पाकर उसने राजीमती से कहा-“हे मुग्धे! मेरी आन्तरिक इच्छा है कि तुम अपना यौवन वृथा न खोकर मुझसे विवाह कर लो। मेरा भाई सांसारिक सुखों का स्वाद न जानता था, इसलिए उसने तुमसे विवाह न किया परन्तु उसके पीछे अब तुम अपना जीवन व्यर्थ क्यों खो रही हो? हे सुन्दरी ! उसने तो प्रार्थना करने पर भी तुम्हें ग्रहण न की किन्तु मैं त्तो अब उलटा तुमसे प्रार्थना कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम सोच-विचार कर मेरी प्रार्थना अवश्य स्वीकार करोगी?"