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श्री नेमिनाथ - चरित 361 देवेन्द्रों ने.और कृष्णादि राजाओं ने भगवान का दीक्षाभिषेक किया। दीक्षाभिषेक होने पर प्रभु उत्तर कुरु नामक रत्नशिविका पर आरूढ़ हुए, जिसे देवता तथा मनुष्यों ने उठाया। इसके बाद उनके आगे सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र ने दो चमर धारण किये। सनत्कुमार ने छत्र, माहेन्द्र ने खड्ग ब्रह्मेन्द्र ने दर्पण, लान्तकेन्द्र ने पूर्ण कुम्भ, महाशक्रेन्द्र ने स्वस्तिक, सहस्रारेन्द्र ने धनुष, प्राणतेन्द्र ने श्रीवत्स, अच्युतेन्द्र ने नन्दावर्त्त और शेष चमरेन्द्र आदि ने शस्त्र धारण किये।
इसके बाद माता पिता, गुरुजन और कृष्ण बलराम आदि भ्राताओं से घिरे हुए महामना भगवान राजमार्ग में चलने लगे। चलते चलते जब वे राजीमती के महल के निकट पहुँचे, तब उन पर राजीमती की दृष्टि जा पड़ी। उनको देखते ही उसके हृदय में फिर दुःख सागर उमड़ पड़ा, जिसके वेग को सम्हाल न सकने के कारण वह मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी ।
इसके बाद भगवान रैवताचल के सहस्राम्र नामक वन में जा पहुँचे। यह आम्रवन रैवताचल का भूषण रूप था। इसकी शोभा नन्दनवन को भी मात करती थी। नवीन केतकी पुष्पों के कारण वह उस समय मानों हँस रहा था। जामुन के वृक्षों से पके हुए जामुन फल भूमि पर गिरने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों चारों ओर की भूमि नीलरत्न द्वारा निर्माण की गयी है । कदम्ब पुष्पों की शैय्या में केकारव शयन करने से मधुकर मानों उन्मत हो रहे थे। कहीं मयूरों का कार और नृत्य मन को मुग्ध कर रहा था, तो कहीं कुटज . पुष्प कामदेव के शस्त्रों से गिरी हुई चिनगारियों का दृश्य उपस्थित कर रहे थे। कहीं मालती और जुई के पुष्प अपनी सुगन्ध से वायु को सुगन्धित बना रहे थे • तो कहीं वृक्षों की घोर घटा पथिकों को विश्राम करने का मानो निमन्त्रण दे रही थी। समुचे वन में चारों ओर प्रकृति की अनुपम छटा फैली हुई थी, जिसे देखकर वैरागी मनुष्य भी कुछ देर के लिए मुग्ध हो जाते थे।
इस रमणीय स्थान में पहुँचने पर प्रभु ने शिबिका से उतरकर अपने शरीर . से गहने कपड़े उतार डाले, जिन्हें इन्द्र ने उठाकर कृष्ण को दे दिये। जन्म से तीन सौ वर्ष होने पर श्रावण शुक्ला छठ के दिन सूर्योदय के बाद चित्रा नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर छट्ठ तप कर, भगवान ने पंच मुष्टि से लो किया । लोच करने पर शक्रेन्द्र ने भगवान के केश ले लिये और उनके कंधे पर