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360 * नेमिनाथ भगवान की बल-परीक्षा प्रयोजन ही क्या है ? वह तो स्नेह रहित, स्पृहा रहित, और लोक व्यवहार से विमुख है। जिस तरह जंगल के पशु बस्ती से डरते हैं, उसी तरह वह भी गार्हस्थ्य जीवन से डरता है। वह दाक्षिण्य रहित, स्वेच्छाचारी और निष्ठुर था। यदि चला गया तो उसे जाने दो। यह अच्छा हुआ, जो उसके गुण आरम्भ में ही प्रकट हो गये। ब्याह के बाद यदि उसने ऐसी निष्ठुरता दिखलायी होती, तो नि:सन्देह वह कुएं में उतारकर रस्सी काट देने के समान कार्य होता। अब उसे जाने दो। शाम्ब, प्रद्युम्न आदि और भी अनेक राजकुमार हैं। उनमें से जिसके साथ इच्छा हो, उसके साथ तुम्हारा ब्याह किया जा सकता है। हे सखी। संकल्प मात्र से तुम नेमि को दी गयी थी, परन्तु उसके स्वीकार न करने पर तुम अब भी कन्या ही हो!" ___ सखियों के यह वचन राजीमती को बहुत ही अप्रिय मालूम हुए। उसने क्रुद्ध होकर कहा-“तुम लोग कुलटा की भांति कुल को कलंकित करने वाली यह कैसी बातें कहती हो। नेमि तो तीनों लोक में उत्कृष्ट है। संसार में क्या कोई भी पुरुष उसकी बराबरी कर सकता है ? और यदि कर भी सकता हो, तो उससे मुझे क्या प्रयोजन ? क्योंकि कन्यादान एक ही बार किया जाता है। मैंने मन और वचन से नेमिकुमार को ही पति माना था और उसने भी गुरुजनों के अनुरोध से मुझे गृहिणी रूप में स्वीकार किया था, फिर भी यदि किसी कारणवश उसने मुझ से ब्याह न किया, तो अब मुझे अनर्थकारी भोगों की ही क्या आवश्यकता है? यदि विवाह में उसका हस्तस्पर्श मुझे नहीं हो सका, तो दीक्षा के समय उनका हस्त मेरे मस्तक पर अवश्य रहेगा।'
राजीमती के यह वचन सुनकर उसकी सब सखियाँ मौन हो गयी। तदनन्तर राजीमती नेमिकुमार के ध्यान में मग्न रहते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी।
उधर नेमिकुमार निश्चित समय पर प्रतिदिन दान देते थे और राजा समुद्रविजय आदि स्वजनों को उनके दीक्षा विषयक निश्चय से घोर दुःख होता था, अत: वे बालक भांति रात दिन रोया करते थे। नेमिकुमार को लोगों के मुख से तथा अपने त्रिज्ञान द्वारा राजीमती की प्रतिज्ञा का हाल भी ज्ञात हुआ, किन्तु वे जरा भी विचलित न हुए। क्रमश: वार्षिक दान पूर्ण होने परं शक्रादि