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श्री नेमिनाथ-चरित * 359 कर शीघ्र ही उसे सावधान किया। उस समय राजीमती के युगल कपोलों पर केश लटक रहे थे और अश्रुओं से उसकी कञ्चुकी भीग गयी थी। होश में आते ही उसे सब बातें फिर स्मरण हो आयी, और वह विलाप करते हुए कहने लगी-“हाँ देव! मैंने तो कभी स्वप्न में भी यह मनोरथ नहीं किया था कि नेमिकुमार मेरे पति हो फिर तूने किसकी प्रार्थना से उनको मेरा पति बनाया?
और यदि उनको मेरा पति बनाया, तो असमय में वज्रपात की भांति तूंने यह विपरीत घटना क्यों घटित कर दी? नि:सन्देह तूं महा कपटी और विश्वासघातक है। मैंने तो अपने भाग्य विश्वास से पहले ही यह जान लिया था क कहां परम प्रतापी नेमिकुमार और कहां हतभागिनी मैं ? मेरा और उनका योग कैसा? परन्तु हे नेमिकुमार ! यदि तुम मुझे अपने लिये उपयुक्त न समझते थे तो फिर मेरे पाणिग्रहण की बात स्वीकारकर मेरे मन में व्यर्थ ही मनोरथ क्यों उत्पन्न किया ? हे स्वामिन्! यदि मनोरथ उत्पन्न किया, तो उसे बीच ही में नष्ट क्यों कर दिया ? महापुरुष तो प्राण जाने पर भी अपने निश्चय से नहीं टलते। फिर आपने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? हे प्रभो! यदि आप अपनी प्रतिज्ञा से इस प्रकार विचलित होंगे, तो समुद्र भी अवश्य मर्यादा छोड़ देगा। परन्तु नहीं, मैं भूल करती हूँ यह आपका नहीं, मेरे ही कर्म का दोष है। मेरे भाग्य में केवल वचन से ही आपका पाणिग्रहण बदा था। यह मनोहर, मातृगृह, यह रमणीय और दिव्य मण्डप, यह रत्नवेदिका तथा हमारे विवाह के लिए जो-जो तैयारियां की गयी हैं, वे सब अब व्यर्थ हो गयी। मंगल गानों में जो गाया जाता है, वह सब सत्य नहीं होता-यह लोकोक्ति भी आज यथार्थ प्रमाणित हो गयी, क्योंकि पहले आप मेरे पति कहलाये, किन्तु बाद में कुछ भी न हो सका। मैंने पूर्वजन्म में दम्पतियों का वियोग करवाया होगा, इसलिए इस जन्म में मुझे आपके समागम का सुख उपलब्ध न हो सका।" ___इस प्रकार विलाप करती हुई राजीमती पुन: जमीन पर गिर पड़ी। होश आने पर उसने अपने छाती पीटते पीटते अपना हार तोड़ डाला और अपने कङकण भी फोड़ डाले। . उसकी यह व्याकुलता देखकर उसकी सखियों ने नेमिकुमार की ओर से उसका ध्यान हटाने के उद्देश्य से कहा—“हे सखी! नेमिकुमार का स्मरण कर अब तुम व्यर्थ ही अपने जी को दुःखित क्यों करती हो? उससे अब तुम्हें