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358 * नेमिनाथ भगवान की बल-परीक्षा मार्ग के गमनागमन से ऊब गया हूँ। इसलिए मैं उसके हेतुरूप कर्मों का अब नाश करना चाहता हूँ परन्तु दीक्षा के बिना यह नहीं हो सकता, इसलिए सर्वप्रथम मैं उसी को ग्रहण करने जा रहा हूँ। हे बन्धो! आप अब मेरे इस कार्य में व्यर्थ ही बाधा न दीजिए।"
इधर राजा समुद्रविजय भी यह बातें सुन रहे थे, इसलिए वे नेमि से कहने लगे—“प्यारे पुत्र! तुम तो गर्भ से ही ईश्वर हो, किन्तु तुम्हारा शरीर अत्यन्त सुकुमार है, तुम इस व्रत का कष्ट किस प्रकार सहन करोगे? हे पुत्र! ग्रीष्मकाल की कड़ी धूप सहना दूर रहा, तुम तो अन्य ऋतु की साधारण धूप भी बिना छाते के सहन नहीं कर सकते। भूख प्यास का परिषह वे लोग भी सहन नहीं कर सकते जो अत्यन्त परिश्रमी और कष्ट सहिष्णु होते हैं, तब इस. देवभोग के योग्य शरीर से तुम इन्हें कैसे सहन करोगे?"
. नेमिकुमार ने कहा—“पिताजी! उत्तरोत्तर दुखों के समूह को भोगते हुए नारकी जीवों को जानने वाले पुरुष क्या इसे दु:ख कह सकते हैं। तप के दुःख . से तो अनन्त सुख देने वाले मोक्ष की प्राप्ति होती है और विषय सुख से तो अनन्त दु:खदायी नरक मिलती है। इसलिए आप ही विचार करके बतलाइए कि मनुष्य को क्या करना उचित है ? विचार करने पर यह तो सभी समझ सकते हैं कि क्या भला और क्या बुरा है, किन्तु दु:ख का विषय यह है कि विचार करने वाले विरले ही होते हैं।"
नेमिकुमार की यह बातें सुनकर उनके माता-पिता, कृष्ण, बलराम तथा समस्त स्वजनों को विश्वास हो गया, कि वे अब दीक्षा लिये बिना नहीं रह सकते, इसलिए सब लोग उच्च स्वर से विलाप करने लगे। किन्तु नेमिकुमार तो कुञ्जर की भांति स्नेह बन्धनों को छिन्न भिन्न कर अपने वासस्थान को चले गये। यह देख, लोकान्तिक देवों ने प्रभु के पास आकर कहा-“हे नाथ! अब आप तीर्थ प्रवर्तित कीजिए।" इसके बाद इन्द्र के आदेशानुसार जृम्भक देवताओं के भरे हुए द्रव्य से भगवान वार्षिक दान देने लगे।" __उधर राजीमती ने जब सुना कि नेमिकुमार दीक्षा लेना चाहते हैं और इसलिए वे द्वार पर से लौटे जा रहे हैं, तब व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देखकर उसकी सखियाँ अत्यन्त चिन्तित हो गयी। उन्होंने समुचित उपचार