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श्री नेमिनाथ-चरित * 357
.. नेमिकुमार का यह वचन सुनते ही शिवादेवी और समुद्रविजय मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े। अन्यान्य स्वजनों के नेत्रों से भी दु:ख के कारण अश्रुधारा बहने लगी। यह देखकर कृष्ण ने सब लोगों को सान्त्वना देकर शान्त किया। तदनन्तर उन्होंने नम्रता पूर्वक नेमिकुमार से कहा-“हे बन्धो! हम सब लोग तुम्हें सदा आदर की दृष्टि से देखते आये हैं। इस समय भी हम लोगों ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया, जिसे तुम्हें किसी प्रकार का दु:ख हो। तुम्हारा रूप अनुपम और यौवन नूतन है। तुम्हारी वधू राजीमती भी रूप और गुणों में सर्वथा तुम्हारे अनुरूप ही है। ऐसी अवस्था में ठीक विवाह के समय, तुम्हें यह वैराग्य क्यों आ रहा है ? जो लोग निरामिष भोजी है, उनके यहां ऐसे समय में पशु पक्षियों का वध होता ही है, इसलिए उनका संग्रह भी एक साधारण घटना थी। परन्तु अब तो तुमने उनको बन्धन मुक्त कर दिया है, इसलिए उस सम्बन्ध में भी अब कोई शिकायत का स्थान नहीं हैं। अतएव अब तुम्हें अपने माता-पिता और बन्धुओं का मनोरथ पूर्ण करना चाहिए। यदि तुम ऐसा न करोगे, तो तुम्हारे माता पिता को बड़ा ही दु:ख होगा। जिस प्रकार तुमने प्राणियों को बन्धन मुक्त कर उनको आनन्दित किया है, उसी प्रकार अपना विवाह दिखाकर अपने स्वजन स्नेहियों को भी आनन्दित करना तुम्हें जरूरी है।" .: नेमिकुमार ने नम्रता पूर्वक कहा—प्रिय बन्धु ! मुझे माता पिता और 'आप लोगों के दुःख का कोई कारण दिखायी नहीं देता है। मेरे वैराग्य का कारण तो चार गति रूप यह संसार है, जहां जन्म होने पर प्राणी को प्रत्येक जन्म में दुःख ही भोगना पड़ता है। जीव को प्रत्येक जन्म में माता, पिता भाई तथा ऐसे ही अनेक सम्बन्धी प्राप्त होते हैं, परन्तु इनमें से कोई भी उसका कर्मफल नहीं बँटाता। उसे अपना कर्म स्वयं ही भोगना पड़ता है। हे बन्धो! यदि एक मनुष्य दूसरे का दु:ख बँटा सकता हो, वो विवेकी पुरुष को चाहिए, कि अपने माता पिता के लिए वह अपना प्राण तक दे दे, परन्तु पुत्रादि होने पर भी प्राणी को जन्म, जरा और मृत्यु का दु:ख तो स्वयं ही भोगना पड़ता है। इससे कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता। यदि आप यह कहें कि पुत्र पिता की दृष्टि को आनन्द देने वाले होते हैं, तो मैं कहूंगा कि महानेमि आदि मेरे कई भाई इस कार्य के लिए विद्यमान है। मैं तो बुढ़े मुसाफिर की भांति इस संसार