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350 * नेमिनाथ भगवान की बल-परीक्षा छाती स्पर्श कर लेती और कभी कोई अन्यान्य अंगों में हाथ देती। कोई रमणी सहस्त्रदल कमल लेकर उनके शिर पर छत्र की तरह धारण करती, तो कोई उनके कंठ में कमलनाल डाल देती। कोई रमणी कमल लेकर उनके उस हृदय पर आघात करती, जिस पर कभी मदनबाण की चोट न लगी थी, तो कोई हास्यविनोद द्वारा उनको हँसाने की चेष्टा करती। निर्विकारी नेमिकुमार भी इन क्रियाओं की प्रतिक्रिया कर अपनी भाभियों का मनोरंजन करते थे।
नेमिकुमार को जल क्रीड़ा में भाग लेते देखकर कृष्ण को अत्यन्त आनन्द्र हुआ। नन्दीवर हाथी की भांति दीर्घकाल तक जल में रहने के बाद कृष्णं उससे बाहर निकल आये। यह देखकर रुक्मिणी और सत्यभामा आदि भी बाहर . निकल आयी। सब लोगों के बाहर निकल आने पर नेमिकुमार भी राजहँस की भांति जल से बाहर निकल कर, रुक्मिणी के निकट जाकर खड़े हो गये। यह देखकर रुक्मिणी ने उनको रत्नमय आसन पर बैठाकर अपने उत्तरीय वस्त्र से उनका शरीर पोंछ दिया।
इसी समय सत्यभामा ने हास्य और विनयपूर्वक नेमि से कहा-"हे देवर! तुम सदा हमारी बातें सहन करते हो, इसलिए मैं निर्भिकता पूर्वक आज तुमसे दो चार बातें कहती हूँ। हे सुन्दर! तुम सोलह हजार पत्नियों के स्वामी कृष्ण के भाई होकर एक भी कन्या का पाणिग्रहण क्यों नहीं करते? तुम्हारा रूप तीनों लोक में सर्वोत्कृष्ट और चरित्र परम निर्मल है यौवन भी अभी नवीन ही है ? फिर तुम्हारी यह अवस्था क्यों ? तुम्हारे माता पिता, भाई भाभी आदि सभी लोग। विवाह के लिए तुमसे प्रार्थना करते हैं ऐसी अवस्था में तुमको उनका मनोरथ पूर्ण करना चाहिए। तुम्हीं अपने मन में विचार करो कि आखिर तुम इस तरह कितने दिन अविवाहित रह सकते हो? हे कुमार! क्या तुम अज्ञ हो या निरस हो या नपुंसक हो? यदि तुम विवाह न करोगे, तो तुम्हारा जीवन अरण्य पुष्प की भांति निरर्थक हो जायगा। इसलिए मैं तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम पहले विवाह कर सांसारिक सुख उपभोग करो। उसके बाद यथासमय तुम ब्रह्मव्रत भी ग्रहण कर सकते हो, परन्तु गृहस्थावस्था में ब्रह्मव्रत का पालन - उसी प्रकार अनुचित है, जिस प्रकार अपवित्र स्थान में मन्त्र का जप करना अनुचित है।"