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348 * नेमिनाथ भगवान की बल-परीक्षा करने लगे, कई लोग अपनी रूपवती रमणियों के साथ वृक्षों में लगे हुए झूलनों में बैठकर झूले का आनन्द लेने लगे। इस प्रकार सब लोग तरह तरह की क्रीड़ा में लीन हो, आनन्द उपभोग करने लगे।
कृष्ण भी इसी उद्यान में सत्यभामा आदि पत्नियों के साथ इधर उधर विचरण कर रहे थे। इतने ही में नेमिकुमार को देखकर कृष्ण अपने मन में कहने लगे—“यदि नेमिकुमार का मन विषय भोग पर लग जाय तो मेरी सम्पदा और मेरा बन्धुत्व सार्थक हो सकता है। इसके लिए मैं बार-बार प्रयत्न करूंगा। संभव है कि ऐसा करने पर मेरा मनोरथ पूर्ण हो जाय।" ___ यह सोचकर कृष्ण ने फूलों का एक सुन्दर हार बनाकर नेमिकुमार के . गले में पहना दिया। कृष्ण का यह कार्य देखकर उनकी सत्यभामा आदि . पत्नियां भी विविध गहने लेकर नेमिकुमार के पास आ पहुँची। उनमें से कोई सुन्दरी उनके पीछे खड़ी हो अपने पीन और उन्नत स्तनों से उनके अंग को स्पर्श करती हुई स्नेह पूर्वक उनके पुष्प गुच्छ बांधने लगी, कोई सामने आकर बाहुमूल को प्रकट करती हुई उनके शिर पर मुकुट रखने लगी, कोई अपने हाथ से उनका कान पकड़कर मदन जयध्वज के समान कान के कुण्डल की रचना करने लगी और कोई नूतन पुष्पों का बाजुबन्ध बनाकर उनकी भुजाओं में पहनाने लगी। इस प्रकार उन रमणियों ने ऋतु के अनुकूल नाना प्रकार के उपाय किये, परन्तु नेमिकुमार के हृदय पर उनका जरा भी प्रभाव न पड़ा। उन्होंने भी निर्विकार भाव से अपनी भाभियों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जिससे उन सभी को बड़ा ही आनन्द हुआ।
इस प्रकार क्रीड़ा करते हुए उन सब लोगों ने एक रात और एक दिन उस उद्यान में व्यतीत किया। इसके बाद कृष्ण सब लोगों के साथ द्वारिका नगरी को लौट आये। इसी तरह और भी कई बार विविध उपवनों में जाकर उन लोगों ने वसन्तोत्सव मनाया और वहां तन मन से इस बात की चेष्टा की, कि नेमिनाथ की प्रवृत्ति पलट जाय, परन्तु इसका कोई भी फल न हुआ। फिर भी राजा समुद्रविजय, अन्य दशार्ह, बलराम, कृष्ण तथा अन्याय यादव इससे निराश न • हुए और उन्होंने भविष्य में भी इन्हीं युक्तियों से काम लेना जारी रखा।
वसन्त के बाद यथासमय ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ। ग्रीष्म के कारण