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338 * कृष्ण वासुदेव का राज्याभिषेक
इसके बाद कृष्ण द्वारिका नगरी में लौट आये। वहां सोलह हजार राजा तथा देवताओं ने भक्ति पूर्वक वासुदेव के पद पर उनका अभिषेक किया। इसके बाद कृष्ण ने पाण्डवों को कुरुदेश की ओर तथा अन्यान्य मनुष्य तथा विद्याधरों को अपना-अपना राज्य देकर अपने-अपने स्थान के लिए विदा
किया।
वासुदेव के पद पर कृष्ण का अभिषेक होने पर समुद्रविजयादिक दस दशार्ह, बलदेव आदिक पांच महावीर, उग्रसेन आदिक सोलह हजार राजे, प्रद्युम्न आदिक साढ़े तीन कोटि कुमार, दुर्दान्त शाम्बादिक साठ हजार कुमार, वीरसेन आदिक इक्कीस हजार वीर, महासेन आदिक पचास हजार आज्ञाकारी. महर्द्धिक तथा हजारों सेठ साहूकार और सार्थवाह सदा कृष्ण की आज्ञा . शिरोधार्य करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित रहने लगे।
राज्याभिषेक के समय सोलह हजार राजाओं ने कृष्ण को भक्तिपूर्वक अनेक रत्न तथा प्रत्येक ने दो कन्याएं प्रदान की थी। उन बत्तीस हजार कन्याओं में से सोलह हजार कन्याओं के साथ कृष्ण ने, आठ हजार के साथ बलदेव ने तथा आठ हजार के साथ अन्यान्य कुमारों ने ब्याह किया। इसके बाद कृष्ण, बलराम तथा समस्त राजकुमार अपनी अपनी पत्नियों को लेकर क्रीड़ा उद्यान तथा क्रीड़ा पर्वतों में आनन्दपूर्वक विचरण करने लगे। ___ इन सब को क्रीड़ा करते देख, राजा समुद्रविजय तथा शिवादेवी ने नेमिकुमार से प्रेमपूर्वक मधुर शब्दों में कहा-“हे वत्स! तुम को देखकर हमारे नेत्र सदा शीतल हो जाया करते हैं। अब तुम यदि किसी योग्य कन्या का पाणिग्रहण कर लो, तो हमारे मन की साध पूरी हो जाय।".
माता पिता के यह वचन सुनकर जन्म से ही संसार के प्रति वैराग्य धारण करने वाले तीनों ज्ञान से युक्त नेमिनाथ प्रभु ने कहा- "मुझे कोई योग्य कन्या नहीं दिखायी देती। यह तो सब दु:ख में डालने वाली है। ऐसी स्त्रियों की मुझे आवश्यकता नहीं है। जब कोई योग्य कन्या दिखायी देगी, तब मैं उससे ब्याह कर लूंगा। इसके लिए मुझसे बार-बार आग्रह करने की जरूरत नहीं।” इस प्रकार नेमिकुमार ने गम्भीरतापूर्वक अपने सरल प्रकृति माता पिता को विवाह के लिए आग्रह करने से मना कर दिया।