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334 जरासन्ध और शिशुपाल वध
पहुँचे ? वह कृष्ण तक पहुँचा और उनके लगा भी किन्तु शस्त्र की तरह नहीं, फूलों के एक गेंद की तरह। उसका स्पर्श कृष्ण के लिए मानो सुख और शान्तिदायक बन गया। वह चक्र क्या था, मानो कृष्ण का मूर्तिमान प्रताप था । कृष्ण ने छाती में लगते ही उसे एक हाथ से पकड़ लिया। उनका यह कार्य देखते ही देवता गण पुकार उठे - " भरतक्षेत्र में नवे वासुदेव उत्पन्न हो गये । नवम वासुदेव की जय हो !” यह कहकर उन्होंने कृष्ण पर सुगन्धित जल और पुष्पों की वृष्टि भी की।
कृष्ण ने उस चक्र को हाथ में ही लिये हुए कहा - " हे अभिमा जरासन्ध! क्या यह भी मेरी माया है ? यदि तूं अपना कल्याण चाहता हो, तो मेरी बात मानकर अब भी वापस चला जा मेरी आज्ञा स्वीकार कर मुझे प्रणाम कर और वहां जाकर पूर्ववत् राज्य कर । तूं वृद्ध है, इस संसार में चंद दिनों का मेहमान है, इसलिए मैं तेरा प्राण नहीं लेना चाहता । यदि तूं मेरे इन वचनों पर ध्यान न देगा तो यह तेरा ही चक्र तेरे प्राणों का ग्राहक बन जायगा । "
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मानी जरासन्ध ने कहा- - "मेरे ही चक्र से मुझे इस तरह डरने की कोई जरूरत नहीं। यह तो मेरे लिए कुम्हार के चक्र के समान है। तेरी आज्ञा मानकर मैं रण से विमुख होना भी पसन्द नहीं कर सकता । यदि तूं चक्र चलाना चाहता है, तो सहर्ष चला, मैं तुझे मना नहीं करता । "
जरासन्ध के यह वचन सुनकर कृष्ण ने रोष पूर्वक वह चक्र जरासन्ध पर छोड़ दिया। किसी ने ठीक ही कहा है कि पराया हथियार भी पुण्यवान के हाथ में पड़ने पर अपना बन जाता है । चक्र लगते ही जरासन्ध का शिर धड़ से अलग हो गया ओर वह चौथे नरक का अधिकारी हुआ । कृष्ण की इस विजय से चारों और आनन्द छा गया और देवताओं ने भी उनकी जय मनाकर उन पर पुष्प वृष्टि की।