________________
श्री नेमिनाथ - चरित 333
उसके. यह अभिमान पूर्ण वचन सुनकर कृष्ण को हँसी आ गयी। उन्होंने कहा—“हे राजन्! आपका कहना यथार्थ है । मैं वास्तव में अस्त्र विद्या से रहित हूँ, किन्तु आपकी अस्त्र विद्या देखने के लिए मैं आज अत्यन्त उत्सुक हूँ। मैं आपकी तरह आत्म प्रशंसा नहीं करता परन्तु इतना अवश्य कहता हूँ कि आपकी पुत्री की प्रतिज्ञा अल्प समय में अवश्य पूरी होगी, किन्तु वह पूरी होगी अग्नि प्रवेश द्वारा, किसी दूसरे कार्य द्वारा नहीं । मेरे इस कथन में सन्देह के लिए जरा भी स्थान नहीं है।"
कृष्ण के इन वचनों से क्रुद्ध होकर जरासन्ध ने उन पर कई तीक्ष्ण बाण छोड़े, किन्तु कृष्ण ने उन सबों को काट डाला। इसके बाद वे दोनों क्रोध पूर्वक अष्टापद की भांति स्थिर हो युद्ध करने लगे। उस समय उनके धनुर्दण्ड के शब्द से दशो दिशाएं व्याप्त हो गयी, युद्ध के वेग से समुद्र क्षुब्ध हो उठे और आकाश विद्याधर भी हो गये । पर्वत के समान उनके रथों के इधर उधर दौड़ने के कारण पृथ्वी भी क्षणभर के लिए कांप उठी । वह युद्ध क्या था, मानो प्रलयकाल उपस्थित हो गया था ।
थोड़ी ही देर में कृष्ण ने जरासन्ध के समस्त अस्त्रों को क्षणभर में काट डाला। यह देख, अभिमानी जरासन्ध ने अपने अमोघास्त्र चक्ररत्न को याद किय़ा, इसलिए वह उसी समय आकर उपस्थित हुआ । क्रोधान्ध जरासन्ध ने • उसको भी चारों ओर घूमाकर कृष्ण पर छोड़ दिया ।
वेग के कारण वह चक्र हाथ से छूटकर जिस समय आकाश में पहुँचा, उस समय उसे देखकर विद्याधर भी कांप उठे । कृष्ण की समस्त सेना व्याकुल हो, एक दूसरे का मुंह ताकने लगी। उस चक्र को रोकने के लिए कृष्ण, बलराम, पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य योद्धाओं ने अपने अपने अस्त्र छोड़े, किन्तु वे सब बेकार हो गये। लोगों ने समझा कि अब कृष्ण की खैर नहीं । यह अवश्य ही उनके प्राण ले लेगा । सब लोग चिन्तित और व्याकुल भाव यह देखने के लिए कृष्ण की ओर दौड़ पड़े, कि वह चक्र लगने पर उनकी क्या अवस्था होती है।
चक्र वास्तव में दुर्निवार्य था । उसकी गति कोई भी रोक नहीं सकता था । साथ ही वह अमोघ भी था । यह भला कब हो सकता था कि वह कृष्ण तक न