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श्री नेमिनाथ-चरित * 25 बन्धुओं के साथ नन्दीश्वरादि महातीर्थों की यात्रा करने गये। वहाँ से वापस लौटने पर उसके पिता सूर ने चित्रगति को सिंहासन पर बैठाकर स्वयं दीक्षा ले ली। चित्रगति योग्य पिता का पुत्र था। इसलिए उसने अनेक खेचर राजाओं को वश में कर अपने राज्य का विस्तार किया। साथ ही अपने प्रजा-प्रेम और अपनी न्यायप्रियता के कारण वह शीघ्र ही प्रजा का प्रिय-पात्र बन गया।
चित्रगति के एक जागीरदार का नाम मणिचूड़ था। उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके शशि और शर नाम के दोनों पुत्र राज्य प्राप्ति के लिए आपस में युद्ध करने लगे। चित्रगति ने उनके राज्य का बंटवारा कर दिया, ताकि सदा के लिए उनके वैमनस्य का अन्त हो जाए। उन्होंने उन्हें समझा बुझाकर भी राह पर लाने की चेष्टा की। उस समय तो ऐसा मालूम हुआ कि इस व्यवस्था से उन्हें सन्तोष हो गया है और वे एक दूसरे से न लड़ेंगे, परन्तु शीघ्र ही उन दोनों में फिर घोर युद्ध हो गया, जिससे उन दोनों को अपने-अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
चित्रगति के हृदय पर इस घटना का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। उनका हृदय वैराग्य से पूर्ण हो गया। वे अपने मन में कहने लगे-“अहो! यह संसार बहुत ' ही विषम है। इसमें कोई सुखी नहीं।" वे ज्यों-ज्यों विचार करते गये, त्यों
त्यों उनका वैराग्य प्रबल होता गया। फलत: उन्होंने पुरन्दर नामक अपने बड़े पुत्र को राज्य-भार सौंपकर दामोदर नामक आचार्य के निकट दीक्षा ले ली। रत्नवती तथा उनके दोनों लघुबन्धुओं ने भी उनका अनुकरण किया। चित्रगति ने दीर्घकाल तक चारित्र पालन कर अन्त में पादोपगमन अनशन किया, जिसके फलस्वरूप उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु होने पर माहेन्द्र देवलोक में वे महान देव हुए। उनके दोनों छोटे भाई और रत्नवती को भी देवत्व प्राप्त हुआ। वे सब वहाँ पर स्वर्गीय सुख का उपभोग करने लगे।