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24 * तीसरा और चौथा भव जो विद्याधर राजा उपस्थित थे, वे भी उन दोनों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे। चित्रगति का अलौकिक रूप और गुण देखकर रत्नवती भी उस पर मुग्ध हो गयी और उसे अनुराग पूर्ण दृष्टि से देखने लगी। ___राजा अनंगसिंह पुत्री की यह अवस्था देखकर अपने मन में कहने लगे"उस ज्योतिषी ने जो कुछ कहा था, वह अक्षरश: सत्य प्रमाणित हुआ, क्योंकि इस चित्रगति ने मेरा खड्ग छीन लिया था, इसी पर आकाश से पुष्पवृष्टि हुई है और इसी पर मेरी पुत्री को अनुराग उत्पन्न हुआ है। निःसन्देह, यही रत्नवती का भावी पति है। मुझे अब शीघ्र ही इससे रत्नवती का ब्याह कर देना चाहिए, परन्तु यहाँ पर देवस्थान में विवाह विषयक बातचीत करना ठीक नहीं। नगर में पहुंचने के बाद इसकी चर्चा करना उचित होगा।" - . ___यह सोचकर राजा अनंगसिंह सपरिवार अपने नगर को लौट आये। सुमित्रदेव तथा अन्यान्य विद्याधरों का सत्कार कर, चित्रगति भी अपने पिता के साथ अपने नगर को वापस चला गया। ..
शीघ्र ही राजा अनंगसिंह ने अपने प्रधानमन्त्री को चित्रगति के पिता राजा सूर की सेवा में प्रेषित किया। उसने राज-सभा में उपस्थित हो, उन्हें प्रणाम करके कहा-“हे स्वामिन् ! आपके पुत्र चित्रगति और हमारी राजकुमारी रत्नवती-दोनों रत्न के समान हैं। इनका विवाह कर देने से मणि-कञ्चन योग की कहावत चरितार्थ हो सकती है। हमारे महाराज इस सम्बन्ध के लिए बहुत ही उत्सुक हैं। यदि आप भी अपनी सम्मति प्रदान करेंगे तो हम लोग अपने को कृत-कृत्य समझेंगे।"
राजा सूर ने अनंगसिंह के मन्त्री की यह प्रार्थना सहर्ष स्वीकार ली। कुछ दिनों के बाद शुभ मुहूर्त में उन दोनों का विवाह कर दिया गया। रत्नवती चित्रगति को पति-रूप में पाकर बहुत ही प्रसन्न हुई। वे दोनों गार्हस्थ्य सुख उपभोग करते हुए आनन्द पूर्वक अपने दिन निर्गमन करने लगे। ____ उधर धनदेव और धनदत्त के जीव च्युत होकर सूर के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुए थे। चित्रगति अपने इन छोटे भाइयों को बहुत ही प्रेम करता था। उनके नाम मनोगति और चपलगति रखे गये थे। बड़े होने पर उन्हें भी समुचित शिक्षा दी गयी थी। विवाह के कई वर्षों बाद चित्रगति अपनी पत्नी और लघु