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श्री नेमिनाथ-चरित * 315 आज्ञाकारी हैं। यदि वे यहां आ जायेंगे, तो उनसे जीतना बहुत कठिन हो जायगा। यदि आप प्रद्युम्न और शाम्ब सहित वसुदेव को हमारा सेनापति बना दें, तो हम लोग सामने जाकर उनको वहीं रोक सकते हैं। इससे जरासन्ध का बल टूट जायगा और उसे जीतना सहज हो जायगा।"
विद्याधरों के यह वचन समुद्रविजय ने कृष्ण से सलाह कर, उनके कथनानुसार सब व्यवस्था कर दी। जन्म स्नात्र के समय अरिष्टनेमि के हाथ में देवताओं ने शस्त्रवारिणी औषधि बांध दी थी। वही ओषधि श्री अरिष्टनेमि भगवान ने, विद्याधरों के साथ प्रस्थान करते समय वसुदेव के हाथ में बांध दी, जिससे शत्रु के शस्त्रास्त्रों से उनकी रक्षा हो सके।
उधर जरासन्ध के शिविर में भी युद्ध मन्त्रणा हो रही थी। व्यूह रचना के लिए अनेक राजा और सामन्त भिन्न भिन्न प्रकार की सूचनाएं दे रहे थे। परन्तु हंसक नामक मन्त्रीश्वर आरम्भ से ही इस युद्ध का विरोधी था। उसने अन्यान्य मन्त्रियों के साथ आकर जरासन्ध से कहा- "हे स्वामिन् ! आप अपने जमाई कंस का बदला लेना चाहते हैं, परन्तु आप यह नहीं सोचते, कि उसने जो अविचारपूर्ण कार्य किया था, उसी का उसको फल भोगना पड़ा था। यदि मनुष्य में विचार शक्ति नहीं होती, तो उसका उत्साह और उसकी प्रभुता उसके लिए विषरूप हो पड़ती है। हे प्रभो! नीतिशास्त्र का कथन है कि शत्रु अपने समान या
अपने से दुर्बल भी हो, तो उसे अपने से बढ़कर समझना चाहिए। ऐसी अवस्था . में महाबलवान कृष्ण, जो हम से कहीं प्रबल है। उनसे युद्ध करना युक्ति संगत
नहीं कहा जा सकता। फिर, यह तो आप स्वयं भी देख चुके है, कि रोहिणी के '. स्वयंवर में दशार्ह वसुदेव ने समस्त राजाओं को चक्कर में डाल दिया था। उस
समय उससे युद्ध करने का किसी को भी साहस न हुआ। हमें यह भी न भूलना चाहिए कि उसके बड़े भाई समुद्रविजय ने ही उस समय हमारे सैन्य की रक्षा की
- थी।
इसके अतिरिक्त यह तो आपको याद ही होगा, कि आप बहुत दिनों से वसुदेव की खोज में थे। द्युतक्रीड़ा में करोड़ रुपये जीतने और आपकी पुत्री को जीवन दान देने पर हम लोगों ने उसे पहचाना और हमारे आदमियों ने उसे मारने की चेष्टा भी की, किन्तु अपने प्रभाव से उसका बाल भी बांका न हुआ। अब