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314 * जरासन्ध और शिशुपाल वध हुआ। इसी तरह दशा) के अन्यान्य पुत्र, बलराम और कृष्ण के अगणित पुत्र, बुवा और बहिनों के पुत्र तथा और न जाने कितने वीर पुरुष वहां आ-आकर एकत्र हो गये। इसके बाद क्रोष्टुकि ज्योतिषी के बतलाये हुए शुभ मूहर्त में दारुक सारथीवाले गरुड़ध्वज रथ पर सवार हो, कृष्ण अपनी नगरी से ईशान कोण की
और चलने लगे। द्वारिका से पैंतालिस योजन दूर निकल जाने पर सिनपल्ली नामक एक ग्राम मिला। वहीं पर वे अपनी सेना के साथ रुक गये।
उधर जरासन्ध भी तूफान की तरह उत्तरोत्तर समीप आता जा रहा था। जब उसकी और कृष्ण की सेना में केवल चार ही योजन का अन्तर रह गया, तो
कई खेचर राजा समुद्रविजय के पास आकर कहने लगे कि-“हे राजन्! . हमलोग आपके भाई वसुदेव के अधीन हैं। आपके कुल में भगवान श्री अरिष्टनेमि, जो इच्छा मात्र से जगत की सुरक्षा या क्षय कर सकते हैं, बलराम और कृष्ण जो असाधारण बलवान हैं तथा प्रद्युम्न और शाम्ब जैसे हजारों पुत्र पौत्र भी मौजूद हैं ऐसी अवस्था में नि:संदेह आपको किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं हो सकती। फिर भी यह समझ कर हम लोग उपस्थित हुए हैं कि शायद इस अवसर पर हमारी कोई सेवा आपके लिए उपयोगी प्रमाणित हो। हे प्रभो। हम चाहते हैं कि आप हमें भी अपने सामन्त समझकर हमारे योग्य कार्यसेवा सूचित करें।”
राजा समुद्रविजय ने सम्मान पूर्वक कहा-"आप लोगों ने इस संकट के समय हमें सहायता देने के विचार से बिना बुलाये ही यहां आने को जो कष्ट उठाया है, तदर्थ मैं आप लोगों को अन्त: करण से धन्यवाद देता हूँ। मैं सदैव आपका ध्यान रक्खूगा और आपके योग्य कोई कार्य दिखायी देगा, तो अवश्य आपको कहूंगा। ____ यह सुनकर खेचर राजा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने पुन: हाथ जोड़कर कहा-“हे राजन् ! आप स्वयं युद्ध निपुण हैं, इसलिए आपकी किसी प्रकार की सलाह देना आपका अपमान करना हैं फिर भी एक बात निवेदन कर देना हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं। वह यह, कि राजा जरासन्ध से आप लोगों को घबड़ाने की जरा भी जरूरत नहीं। उसे पराजित करने के लिए अकेले कृष्ण ही पर्याप्त हैं। परन्तु वैताढय पर्वत पर कुछ ऐसे विद्याधर रहते हैं, जो उसके परम