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श्री नेमिनाथ-चरित * 311 .. इस प्रकार जीवयशा को विलाप करते देख, जरासन्ध ने उससे इसका कारण पूछा। इस पर उसने कृष्ण का सब हाल उसे कह सुनाया। साथ ही उसने कहा-“हे तात! मैंने कृष्ण का सर्वनाश करने की प्रतिज्ञा की थी। वह प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी, इसलिए अब मुझे अग्नि प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए। मुझे अब यह जीवन भार रूप मालूम होता है।"
यह सुनकर जरासन्ध ने कहा- "हे पुत्री! तूं रुदन मत कर। मैं कंस के शत्रु की बहिनों और स्त्रियों को अवश्य ही रुलाऊंगा।"
इसके बाद मगधपति जरासन्ध यादवों से युद्ध करने की तैयारी करने लगा। उसके चतुर मन्त्रियों ने उसे भरसक समझाने की चेष्टा की, किन्तु उसने किसी की एक न सुनी। उसने न केवल अपनी सेना को ही प्रस्थान करने की आज्ञा दी, बल्कि अपनी आज्ञा मानने वाले अनेक राजा और सामन्तों को भी अपनी अपनी सेना के साथ इस लड़ाई में भाग लेने के लिए निमन्त्रित किया।
जरासन्ध का रण निमन्त्रण पाकर उसके परम बलवान सहदेवादिक पुत्र, महापराक्रमी चेदिराज, शीशुपाल, राजा हिरण्यनाभ, सौ भाइयों के बल से गर्विष्ट कुरुवंशी राजा दुर्योधन तथा और न जाने कितने राजा और सामन्त
उसकी सेना में उसी तरह आ मिले जिस प्रकार समुद्र में विविध नदियां आकर - मिलती है।" . . यथासमय समुद्र समान इस विशाल सेना के साथ जरासन्ध ने राजगृही से प्रस्थान करने की तैयारी की। प्रयाण करते समय उसके शिर का मुकुट सरक पड़ा, हृदय हार टूट गया, बायीं आंख फड़क उठी, छोर में पैर फंसकर रुंक गया, छींक हुई, महाभीषण सर्प रास्ता काट गया, बिल्ली भी सामने से निकल गयी, उसके बड़े हाथी ने मलमूत्र विसर्जन कर दिया, वायुप्रतिकूल हो गया और गृद्ध शिर के ऊपर मँडराने लगे। जरासन्ध ने इन सब अशुभसूचक
अपशकुनों को देखा, किन्तु फिर भी उसने रणयात्रा से मुख न मोड़ा। बल्कि ‘यों कहना चाहिए कि उसने अपने हृदय में इनका विचार तक न आने दिया। . निर्दिष्ट समय पर कूचका डंका बजा और जरासन्ध अपने गन्ध हस्ती परं सवार हो, अपनी विशाल सेना के साथ पश्चिम दिशा की ओर चल दिया।
जरासन्ध के प्रस्थान का यह समाचार शीघ्र ही कलह प्रेमी नारद मुनि