________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 309 . इसी समय एक दिन शाम्बकुमार अपने पितामह वसुदेव को वन्दन करने गया। वह कुछ अविवेकी तो था ही, बात ही बात में वसुदेव से कहने लंगा–“आपने तो पृथ्वी में भ्रमण करने के बाद न जाने कितने दिनों में इतनी स्त्रियों से विवाह किया था, परन्तु मैंने तो घर बैठे ही एक साथ निन्नानवे स्त्रियों से विवाह कर लिया है देखिये, आपमें और मुझमें कितना अधिक अन्तर है!"
उसके यह मूर्खतापूर्ण वचन सुनकर वसुदेव हँस पड़े। उन्होंने कहा"हे कूपमण्डूक! तेरे पिता ने नगर से तुझे निकाल दिया था, फिर भी तूं यहां चला आया। तुझे मानापमान का जरा भी ख्याल नहीं है, परन्तु मैं तो भाई के अपमान से अप्रसन्न होकर स्वयं विरता पूर्वक बाहर चला गया था। घर से निकलकर मैंने श्मशान कर द्वारा उदर पूर्ति नहीं की। मैंने वीरता पूर्वक देश विदेश में भ्रमण किया और वीरोचित ढंग से ही अनेक कन्याओं का पाणिग्रहण किया। इसके बाद जब बन्धुओं से भेट हुई और इन्होंने मुझसे आग्रह किया, तभी मैंने अपने देश में पैर रखा। तेरी तरह निर्लज्ज होकर मैं अपने आप वापस नहीं आया!"
____ पितामह की यह.फटकार सुनकर शाम्बकुमार को होश आया और उसने : अपनी मूर्खता के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए उनसे कहा-“हे तात! यह सब मैंने अज्ञानता से ही कहा था। आप मेरी इन अनुचित बातों के लिए मुझे क्षमा करिए। आप वास्तव में बड़े ही गुणवान है और अपने गुणों के ही कारण आपने यह स्थान प्राप्त किया है।"
इसके बाद शाम्ब ने अपने पिता कृष्ण से भी विनय अनुनय कर अपना अपराध क्षमा कराया। साथ ही उन दुर्गणों को भी सदा के लिए जलाञ्जलि दे दी, जिनके कारण जब तब उसकी निन्दा हआ करती थी। इतना करने पर उसका चरित्र भी निर्मल बन गया और एक देवता की भांति सांसारिक सुख उपभोग करते हुए वह अपने दिन आनन्दपूर्वक व्यतीत करने लगा।