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302 * शाम्ब-चरित्र
देता हूँ। अब तुम उसे लेकर ऐसे स्थान में चले जाओ, जहां मैं तुम्हें देख न सकू।" ___इतना कह, राजा रुक्मि ने रोषपूर्वक वैदर्भी को उन चाण्डालों के साथ जाने की आज्ञा दे दी। चाण्डालों ने वैदर्भी का हाथ पकड़ते हुए पूछा-“हे राजपुत्री ! हमारे यहां पानी भरना, रस्सियां बनाना, चमड़ा बेचना-यही सब काम रहते हैं, क्या तू यह सब कर सकेगी?"
वैदर्भी ने आँसू बहाते हुए कहा-“विधाता मुझसे जो जो काम करायेगा, वह मैं अवश्य करूंगी। विधाता की आज्ञा दुर्लध्य है।" उसके इस उत्तर में सन्तुष्ट हो, वे दोनों उसे अपने साथ लेकर वहां से चलते बने। ...
राजा रुक्मि ने क्रोध के आवेश में वैदर्भी को चाण्डालों के साथ तो भेज दिया, किन्तु शीघ्र ही इसके लिए उसे घोर पश्चात्ताप होने लगा। वह अपनी तबियत बहलाने के लिए राज सभा में जा बैठा, किन्तु वहां भी उसे शान्ति न.. मिल सकी। वैदर्भी के स्मरण से उसके नेत्रों में आँसू भर आये। वह अपने मन में कहने लगा-"हा वत्से! हे वैदर्भी ! इस समय तूं न जाने कहां होगी ? मैंने तुझे चाण्डालों के सुपर्द कर निःसन्देह बड़ा ही अनुचित कार्य किया है। तूने तो इसके विरोध में एक शब्द भी न कहा, तूं तो गरीब गाय की तरह उन लोगों के पीछे चल पड़ी, किन्तु मैं अब अपने चित्त को किस प्रकार सान्तवना दूं? वास्तव में क्रोध से बढ़कर इस संसार में मनुष्य का दूसरा कोई शत्रु नहीं है। क्रोध ने ही मेरे हाथों से अनुचित कार्य कराया। रुक्मिणी ने प्रद्युम्न के लिए तेरी याचना की थी, परन्तु मैंने उसे अस्वीकार कर दिया था। अब मैं सोचता हूं कि इससे तो वही अच्छा था। हा देव! अब मैं क्या करूं? संसार को मैं अपना कौनसा मुँह दिखाऊँ ?'
राजा रुक्मि राज सभा में बैठा हुआ इसी तरह पश्चात्ताप कर रहा था। इतने ही में उसे वाद्यों की मधुर और गंभीर ध्वनि कहीं से आती हुई सुनायी दी। उसके सम्बन्ध में पूछताछ करने पर कई राज कर्मचारियों ने पता लगाकर बतलाया कि-“हे स्वामिन् ! नगर के बाहर एक विशाल प्रासाद में प्रद्युम्न और शाम्ब वैदर्भी के साथ बैठे हुए हैं, वहीं पर यह मनोहर बाजे बज रहे हैं और सुन्दर नाटक हो रहा है। हे प्रभो! संगीत और बाजों की मधुर ध्वनि