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300 * शाम्ब-चरित्र रसोई बनाने वाली नहीं है। इससे हमें बड़ा ही कष्ट होता है और अनेक बार भूखों भी मरना पड़ता है यदि आप वास्तव में हमारे कार्य से सन्तुष्ट हैं, तो हे .. राजन् ! अपनी राजकुमारी वैदर्भी को हमें देने की कृपा कीजिए।" .
__ रुक्मि तो यह सुनते ही आग बबूला हो उठा। उसने उसी समय उन दोनों को भला बुरा कहकर, नगर से बाहर निकलवा दिया।
प्रद्युम्न और शाम्ब नगर के बाहर एक वृक्ष के नीचे बैठकर इस बात पर विचार करने लगे, कि अब क्या करना चाहिए। प्रद्युम्न ने कहा- “मेरी माता दुःखित हो रही होगी, इसलिए अब वेदी से विवाह करने में विलम्ब न करना चाहिए।" शाम्ब की भी यही राय हुई कि अब इस कार्य को शीघ्र ही निपटा डालना चाहिए। उस समय रात्री हो चली थी। कुछ देर बाद जब सब लोगं घोर निद्रा में पड़कर खुर्राटे लेने लगे, तब प्रद्युम्न ने अपनी विद्या के बल से वैदर्भी के शयनागार में प्रवेश कर उसे रुक्मिणी का एक कृत्रिम पत्र दिया। उसमें प्रद्युम्न के लिए उसकी याचना की गयी थी। वैदर्भी उस पत्र को पढ़कर प्रसन्न हो उठी उसने प्रेम पूर्वक प्रद्युम्न से कहा-“हे भद्रं ! तुमने यह पत्र लाकर मुझ पर बड़ा ही उपकार किया है। बतलाओ, इस उपकार के बदले अब तुम मुझसे क्या चाहते हो?"
प्रद्युम्न ने कहा-"सुलोचने! इस उपकार के बदले तुम अपना तन मन मुझे अर्पण कर दो। इस पत्र में जिसके लिये तुम्हारी याचना की गयी है, वह प्रद्युम्न मैं ही हूँ।"
प्रद्युम्न का परिचय पाकर वैदर्भी के आनन्द का वारापार न रहा। उसने कहा-“अहो ! मालूम होता है कि मेरे मन की बात जान कर विधाता ने ही आपको मेरे पास भेज दिया है।" वह तुरन्त प्रद्युम्न के प्रस्ताव से सहमत हो गयी। प्रद्युम्न ने उसी समय अपनी विद्या के बल से अग्नि और विवाहोपयोगी साम्रगी प्रकट कर वैदर्भी के साथ विवाह कर लिया। इसके बाद उन दोनों ने वह रात्रि इच्छानुसार हास्य-विलास करने में व्यतीत की। पिछली रात में प्रद्युम्न ने वैदर्भी से कहा-“हे सुन्दरि! अब मैं शाम्ब के पास जाता हूँ, तुम्हारे माता पिता या अन्य लोग तुम्हारे शरीर पर कंकणादिक वैवाहिक चिन्ह देखकर तुमसे चाहे जितना पूछे, किन्तु इस विवाह का हाल किसी हालत में