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296 * शाम्ब-चरित्र
रुक्मिणी ने कहा- “हे पुत्र! मैं अकेले तुमको ही पुत्र रूप में पाकर धन्य हो गयी हूँ। अब मुझे अन्य पुत्रों की जरूरत नहीं है।
प्रद्युम्न ने कहा-“अच्छा, तब यह बतलाइये, कि मेरी अन्य माताओं में कौन माता आपको अधिक प्रिय हैं ? जो आपको अधिक प्रिय हो और जिसे आप कहें, उसीको मैं वह हार दिलवा दूंगा।"
रुक्मिणी ने कहा-“हे पुत्र! तुम्हारे वियोग से जिस प्रकार मैं दु:खित रहती थी, उसी प्रकार जाम्बवती भी दुःखित रहती थी। तुम उसे वह हार दिला दो। उसके पुत्र होने से मुझे प्रसन्नता ही होगी!"
इसके बाद प्रद्युम्न के कहने से रुक्मिणी ने जाम्बवती को अपने पास बुला भेजा। उसके आने पर प्रद्युम्न ने अपनी प्रज्ञप्ति विद्या के बल से उसे सत्यभामा के सदृश बना दिया। इसके बाद रुक्मिणी ने सब बातें समझाकर सन्ध्या के समय उसे कृष्ण के शयनागार में भेज दिया। कृष्ण ने उसे सत्यभामा समझकर उसे सहर्ष वह हार देकर उसके साथ समागम किया। इसके बाद जाम्बवती ने सिंह का एक स्वप्न देखा ओर महाशुक्र देवलोक से कैटभ का जीव च्युत होकर उसके उदर में आया। जाम्बवती को इससे अत्यन्त आनन्द हुआ और वह मन ही मन रुक्मिणी तथा प्रद्युम्न को धन्यवाद देती हुई अपने महल को चली गयी। ___ उधर कृष्ण ने दिन के समय सत्यभामा से उस हार का हाल बतलाकर रात्रि के समय उसे अपने शयनगृह में बुलाया था। उनके इस आदेशानुसार जाम्बवती के चले जाने पर, सत्यभामा आ खड़ी हुई। उसे देखकर कृष्ण अपने मन में कहने लगे—“अहो! स्त्रियों में कितनी भोगाशक्ति होती है। यह अभी मेरे पास से गयी है और फिर मेरे पास आ पहुँची है। साथ ही उन्हें यह भी विचार आया कि सत्यभामा का रूप धारण कर पहले किसी ने मुझे धोखा तो नहीं दिया है? कुछ भी हो, उन्होंने सत्यभामा को निराश करना उचित न समझा। वैसा करने से अवश्य ही उसका जी दुःखित हो जाता। कृष्ण ने यही सोचकर उसे भी रति दान देना स्थिर किया।
सत्यभामा का रति समय जानकर प्रद्युम्न ने उसी समय कृष्ण की भेरी बजा दी। उसकी ध्वनि सुनते ही चारों ओर खलबली मच गयी। कृष्ण को