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292 पाण्डव-जन्म और द्रौपदी - स्वयंवर
भेजा और आप स्वयं मेरे पहले ही वहां पहुँच गये। फिर, न वहाँ जाते देरी, न यहां आते देरी! मेरे वापस आने के पहले ही आप भी यहां वापस आ गये ! रुक्मिणी के यहां आपको देखकर मेरे साथ बेचारी सत्यभामा भी लज्जित हो गयी!”
बलराम के 'यह वचन सुनकर कृष्ण बड़े ही चक्कर में पड़ गये। वे शपथ पूर्वक कहने लगे कि – “मैं वहां नहीं गया, तुम मुझ पर क्यों संदेह करते हो।" यह सुनकर बलराम तो शान्त हो गया – “किन्तु सत्यभामा को जरा भी विश्वास न हुआ। वह क्रुधित होकर कहने लगी कि – “ यह सब तुम्हारी हीं माया है!” यह कहती हुई वह अपने महल को चली गयी । कृष्ण इससे बड़े असमंजस में पड़ गये और वे उसके भवन में जाकर उसे समझाने बुझाने और अपनी सत्यता पर विश्वास कराने लगे ।
इधर रुक्मिणी के वहां नारद ने आकर उससे कहा कि – “हे भद्रे ! तुम पुत्र को भी नहीं पहचान सकती हो ? यही तो तुम्हारा पुत्र प्रद्युम्नकुमार
अपने
है!”
नारद ने जब यह भेद खोल दिया, तब प्रद्युम्न ने भी साधु का वेश परित्याग कर अपना देव समान असली रूप धारण कर लिया। इसके बाद वे प्रेम पूर्वक माता के पैरों पर गिर पड़े। रुक्मिणी के स्तनों से भी उस समय वात्सल्य के कारण दूध की धारा बह निकली। उन्होंने अत्यन्त स्नेह पूर्वक प्रद्युम्न से लगा लिया और हर्षाश्रुओं से उसका समूचा शरीर भिगो
डाला।
इस प्रेम मिलन के बाद प्रद्युम्न ने रुक्मिणी से कहा - " हे माता ! जब तक मैं अपने पिता को कोई चमत्कार न दिखाऊँ तब तक आप उनको मेरा परिचय न दें !”
हर्ष के आवेश में रुक्मिणी ने इसका कुछ भी उत्तर न दिया । प्रद्युम्न उसी समय एक माया - रथ पर रुक्मिणी को बैठाकर वहाँ से चल पड़े। वे मार्ग में शंख बजा बजाकर लोगों से कहते जाते थे कि मैं रुक्मिणी को हरण किये जाला हूँ । यदि कृष्ण में शक्ति हो, तो इसकी रक्षा करे। उनके इस कार्य से चारों ओर हाहाकार मच गया। शीघ्र ही कृष्ण ने भी यह समाचार सुना । वे कहने लगे