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288 * पाण्डव-जन्म और द्रौपदी-स्वयंवर
सत्यभामा के महल से निकलकर प्रद्युम्न एक बालसाधु का वेश धारण कर, उसी वेश में रुक्मिणी के महल में पहुँचे। नेत्रों को आनन्द देनेवाला उनका चन्द्रसमान रूप देखकर रक्मिणी उठकर खड़ी हो गयी और उनको आसन देने के लिये अन्दर गयी। इतने ही में वे वहां रखे हुए कृष्ण के सिंहासन पर बैठ गये। आसन लेकर बाहर आने पर रुक्मिणी ने देखा, कि साधु महाराज कृष्ण के आसन पर बैठे हुए हैं, तब उनके नेत्र आश्चर्य से विकसित हो गये। उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा-'महाराज! मुझे एक बात कहने के लिए क्षमा कीजिएगा। मैंने सुना है कि इस सिंहासन पर श्रीकृष्ण या उनके पुत्र के सिवा यदि कोई ओर बैठेगा, तो देवतागण उसे सहन न करेंगे और उसका अनिष्ट होगा।"
माया साधु ने मुस्कुरा कर कहा-“माता! आप चिन्ता न करें। मेरे तप के प्रभाव से देवता मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।"
उसका यह उत्तर सुनकर रुक्मिणी शान्त हो गयी। थोड़ी देर बाद उन्होंने. पूछा-“महाराज! यहां आपका आगमन किस उद्देश्य से हुआ है ? मेरा योग्य जो कार्यसेवा हो, वह नि:संकोच होकर कहिये।"
मायवी साधु ने कहा-“हे भद्रे! मैं सोलह वर्ष से निराहार तप कर रहा है। यहां तक, कि मैंने माता का दूध भी नहीं पिया। आज मैं पारणा करने के लिये यहां आया हूँ। आप मुझे जो कुछ दे सकती हो, सहर्ष दें।" ___ रुक्मिणी ने कहा-“हे मुने! आज तक मैंने सोलहवर्ष का तप कहीं भी नहीं सुना। हां, उपवास से लेकर एक वर्ष का तप अवश्य सुना है।" ___माया साधु ने कुछ रुष्ट होकर कहा-"आपको इन सब बातों पर विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आपके घर में कुछ हो और
आप मुझे देना चाहती हो तो दे दें, अन्यथा मैं सत्यभामा के यहां चला जाऊंगा।" ___ रुक्मिणी ने कहा- “नहीं महाराज, आप नाराज न होइए। असल बात तो यह है कि आज मैंने चिन्ता के कारण कुछ भी भोजन नहीं बनाया है। इसलिए ऐसी अवस्था में आपको मैं क्या दूँ? ___ माया साधु ने गंभीरता पूर्वक पूछा- “आज आपको इतनी चिन्ता क्यों
हैं?"