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286 * पाण्डव-जन्म और द्रौपदी-स्वयंवर
दासी की यह बात सुनकर प्रद्युम्न उसके साथ सत्यभामा के घर गये। वहां उन्हें बाहर बैठाकर वह दासी अन्दर गयी, सत्यभामा को उसे पहचानने में भ्रम हो गया। उसने पूछा-“तूं कौन है ?” दासी ने कहा- “हे स्वामिनी ! मैं आपकी वही कुब्जा दासी हूँ, जो नित्य आपके पास रहती हूं। क्या आप मुझे नहीं पहचान सकीं?"
सत्यभामा ने कहा-“क्या तू वही कुब्जा है ? तेरा वह कूबड़पना कहाँ . चला गया ? सचमुच, आज तुझे कोई न पहचान सकेगा।"
यह सुनकर कुब्जा हँस पड़ी और उसने सत्यभामा को उस ब्राह्मण का सब हाल कह सुनाया। सत्यभामा भी उस ब्राह्मण को देखने के लिए लालायित हो उठी। उसने पूछा-“वह ब्राह्मण कहां है?"
कुब्जा ने कहा-“वह महल के बाहर बैठा हुआ है।" ... सत्यभामा ने कहा-“जा तू, उस महात्मा को शीघ्र ही मेरे पास ले
आ!"
कुब्जा तुरन्त बाहर गयी और उसी मायावी ब्राह्मण को अन्दर ले आयी। वह आशीर्वाद देकर एक आसन पर बैठ गया। तदनन्तर सत्यभामा ने उससे कहा-“हे ब्रह्मदेवता! आपने इस कुब्जा का कुबड़ अच्छा कर अपनी असीम शक्ति सामर्थ्य का परिचय दिया है। अब आप मुझ पर भी दया करिये ..
और मुझे रुक्मिणी की अपेक्षा अधिक सुन्दर बना दीजिएं। आपके लिए यह जरा भी कठिन नहीं है। हे भगवन्! आपकी इस कृपा के लिए मैं चिरऋणी रहूंगी।"
मायाविप्र ने कहा-“तुम्हें क्या हुआ है? मुझे तो तुम परम रूपवती दिखायी देती हो। मैंने तो अन्य स्त्रियों में ऐसा रूप कहीं नहीं देखा!"
सत्यभामा ने कहा-“हे भद्र! आपका कहना यथार्थ है। मैं अन्य स्त्रियों को देखते हुए अवश्य रूपवती हूं, परन्तु अब मैं ऐसा रूप चाहती हूं, जो अलौकिक और अनुपम हो, जिसके सामने किसी का भी रूप ठहर न सके।"
मायाविप्र ने कहा- “यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है, तो पहले अपने समूचे शरीर को कुरूप बना डालो। कुरूप होने पर विशेष रूप से सुन्दर बनाया जा सकता है।"