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श्री नेमिनाथ - चरित : 285
में नचाने लगे। उस अश्व को देखकर भानुक उस पर मुग्ध हो गया। उसने प्रद्युम्न से पूछा - " क्यों सौदागर ! यह तुम्हारा ही अश्व है ?” प्रद्युम्न ने कहा—“हां। इसपर भानुक ने कहा-' -"यह अश्व तुम मुझे दे दो, मैं इसका मुंह मांगा मूल्य देने को तैयार हूँ।” प्रद्युम्न ने कहा—“अच्छा, मूल्य की बात पीछे होगी, पहले आप परीक्षा करके इसे देख लीजिए, यदि आपको यह पसन्द होगा, तो मैं सहर्ष दे दूंगा । "
प्रद्युम्न की यह बात सुनकर भानुक ने ज्योंही उस पर सवारी की, त्योंही उसने इतनी उछल कूद, मचायी, कि भानुक जमीन पर आ गिरा। उसके सब कपड़े ख़राब हो गये और आंख, नाक तथा मुख आदि में भी बेतरह धूल भर गयी। भानुक ने किसी तरह खड़े हो, आँखें मलकर देखा, तो वहां न उस अश्व का ही पता था न प्रद्युम्न का ही । वह लज्जित हो, अपना शिर धुनता हुआ अपने वासस्थान को चला गया।
इसके बाद प्रद्युम्न ने एक विदूषक का रूप धारण किया और एक भेड़ पर सवार होकर, नगर निवासियों को हंसाते हुए वे वसुदेव की राजसभा में पहुँचे। उनका विचित्र वेश देखकर वहां जितने मनुष्य थे, वे सब ठठाकर हँस पड़े। प्रद्युम्न ने अपने विविध कार्यों द्वारा उन लोगों को और भी हँसाया । जब सब लोग हँसते हँसते थक गये, तब प्रद्युम्न ने अपना वह रूप पलटकर एक * वेदपाठी ब्राह्मण का वेश धारण कर लिया ।
इसी वेश में प्रद्युम्न बहुत देर तक नगर में विचरण करते रहे। अन्त में सत्यभामा की एक कुब्जा दासी से उनकी भेंट हो गयी। उन्होंने अपनी विद्या के बल से उसका कुबड़ापन दूर कर दिया। इससे कुब्जा को बड़ा ही आनन्द हुआ और वह भक्तिपूर्वक उनके चरणों पर गिर कर कहने लगी- " है भगवान् ! आप कौन हैं और कहा जा रहे हैं ? "
प्रद्युम्न ने कहा – “मैं वेदपाठी ब्राह्मण हूँ और भोजन के लिए बाहर निकला हूँ। मुझे जहाँ इच्छानुसार भोजन मिलेगा, वहीं पर अब मैं जाऊंगा।"
कुब्ज़ा ने कहा- “यदि ऐसी ही बात है, तो हे महाराज ! आप मेरे साथ मेरी स्वामिनी सत्यभामा के घर चलिए। वहां राजकुमार भानुक का विवाह होने वाला है, इसलिए विविध प्रकार के मोदकादिक तैयार किये गये हैं। उनमें से कुछ पकवान खिलाकर मैं आपको सन्तुष्ट करूंगी।"