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श्री नेमिनाथ - चरित
281 एक भाई भी है। मेरे पिता ने बाल्यावस्था में ही मुझे गौरी नामक एक विद्या दी थी। इसके बाद कालसंवर ने विवाह करने के पहले मुझे प्रज्ञप्ति नामक विद्या दीं थी। इन दो विद्याओं के कारण मुझ में असीम शक्ति है और उसके कारण मैं किसी की परवाह नहीं करती । हे प्रद्युम्न ! तुम्हारा यह सुन्दर स्वरूप देखकर मैं तुम पर आशिक हो गयी हूं, मेरी इच्छा है कि तुम मुझसे विवाह कर लो ! सुभग ! मेरी धारणा है कि इस कार्य के लिए तुम्हें कभी भी पछताना न पड़ेगा !"
कनकमाला का यह प्रस्ताव सुनकर प्रद्युम्न को मानो काठ मार गया । उसने कहा—“अहो ! तुम यह क्या कह रही हो ? क्या तुम यह नहीं जानती हो, कि मैं तुम्हारा पुत्र और तुम मेरी माता हो ! यह कार्य हम दोनों के लिए परम निन्दनीय और त्याज्य है !" .
कनकमाला ने कहा – “हे सुन्दर ! तुम मेरे पुत्र नहीं हो ! किसी ने जन्मते ही तुमको त्याग दिया था। अग्निज्वालपुर से यहां आते समय मार्ग में कालसंवर ने तुम्हें देखा था और वह तुम्हें यहां उठा लाया था। उस समय हमारे एक भी पुत्र न था, इसलिए हमने तुमको अपना पुत्र बना लिया था । इसलिए मैं कहती हूं कि मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लेने में कोई दोष नहीं है । "
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प्रद्युम्न कहा – “हे भद्रे ! संभव है कि तुम्हारी यह बातें सच हों, परन्तु तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकारकर लेने से कालसंवर और तुम्हारे पुत्र मुझे कदापि जीता न छोड़ेंगे !"
कनकमाला ने कहा :- " हे सुभग ! उनसे डरने का कोई कारण नहीं है । • तुम मेरे पास से गौरी और प्रज्ञप्ति- इन दो महाविद्याओं को ग्रहण कर लो। फिर किसका सामर्थ्य है जो तुम्हारे शरीर को हाथ लगा सके। यह विद्याएं सिद्ध करने वाला किसी से हार नहीं सकता । "
प्रद्युम्न ने सोचा कि इन विद्याओं को हाथ करने का मौका खोना ठीक . नहीं । विद्या ग्रहण करने के बाद भी यदि मैं इसकी बात न मानूं तो यह मेरा क्या बिगाड़ सकती है? यह सोचकर उसने कहा - "अच्छा, पहले मुझे वह दोनों विद्याएं दे दो फिर मैं तुम्हारी बात पर विचार करूंगा।"
कनकमाला उस समय कामान्ध हो रही थी, इसलिए उसकी विचार