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280 * पाण्डव-जन्म और द्रौपदी-स्वयंवर राजमन्दिर में गयी। वहां बलराम और कृष्ण ने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम कर उनका बड़ा आदर सत्कार किया। पाण्डवों को भी उन्होंने गले लगा लगाकर समुचित आसन पर बैठाया। तदनन्तर कृष्ण ने नम्रातपूर्वक कुन्ती से कहा“आप यहां चली आयी सो बहुत ही अच्छा किया। यादवों की समस्त श्री और सम्पति आप अपनी ही समझिए। हमसे भेद भाव रखने की कोई आवश्यकता नहीं।"
कृष्ण के यह वचन सुनकर युधिष्ठिर ने कहा- "हे कृष्ण! जिस पर तुम्हारी दया हो, उसे संसार में किसी बात की कमी नहीं रह सकती। आपके जन्म से मेरा मातृ कुल धन्य हो गया है। नि:सन्देह, आप हमारे लिये एक अभिमान की वस्तु हैं। आपके कारण हमलोग संसार में अपने को सबसे अधिक बलवान मानते हैं।"
इस प्रकार की बातें करते हुए कृष्ण ने कुन्ती और उनके पुत्रों को सम्मान पूर्वक पृथक् पृथक् प्रासाद में ठहराया। इसके बाद दशा) ने लक्ष्मीवती, वेगवती, सुभद्रा, विजया और रति नामक अपनी पांच कन्याओं का विवाह पांचों पाण्डवों के साथ कर दिया। पाण्डवों को इस सुख और सम्मान से अत्यन्त आनन्द हुआ और वे अपना दुःख भूलकर आनन्द पूर्वक वहां विनास करने लगे। ___ उधर प्रद्युम्नकुमार ने समस्त विद्या और कलाओं में पारदर्शिता प्राप्त कर धीरे धीरे यौवन की सीमा में पदार्पण किया। उस समय उसका शरीर विकसित पुष्प की भांति श्रीसम्पन्न बन गया। कालसंवर की स्त्री कनकमाला ने यद्यपि पुत्र की भांति उसका लालनपालन किया था, किन्तु एक दिन उसके शरीर की अपूर्व शोभा देखकर वह उस पर मुग्ध हो गयी और अपने मन में. कहने लगी-"मुझे तो कोई विद्याधर भी ऐसा रूपवान होगा या नहीं, इसमें सन्देह है। यह मेरा ही पाला हुआ वृक्ष है, इसलिए इसके यौवन का फल भी पहले मैं ही भोग करूंगी। ऐसा करने में कोई दोष भी नहीं है।"
इस प्रकार विचारकर एकदिन उसने प्रद्युम्न से कहा-“हे युवक शिरोमणि! यहीं उत्तर श्रेणी में नलपुर नामक एक नगर है। वहां पर गौरीवंश का निषध नामक राजा राज्य करता है। मैं उसकी पुत्री हूं, मेरे नैषधि नामक