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श्री नेमिनाथ - चरित 279 महोत्सव समाप्त होने पर दशार्ह, बलराम, कृष्ण तथा अन्यान्य राजाओं ने अपने अपने नगर जाने की इच्छा प्रकट की, इसलिए पाण्डु ने उन्हें सम्मानर्पूक विदा किया।
इसके बाद राजा पाण्डु युधिष्ठिर को अपना राज्य देकर परलोक सिधार गये। उनके बाद माद्री ने भी अपने दोनों पुत्रों को कुन्ती के सुपुर्द कर अपनी इहलोक लीला समाप्त की। पाण्डु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र के लड़के पाण्डवों को हीन दृष्टि से देखने लगे क्योंकि वे सब परम अभिमानी, राज्य लोलुप और प्रपञ्ची थे। दुर्योधन ने पाण्डवों के वृद्ध मन्त्री और पुरोहितादिक को विनय आदि से वशी भूतकर पाण्डवों को जुआ खेलने के लिए प्रेरित किया । जुएं के दाव में उनका समस्त राज्य तथा द्रौपदी को भी जीत लिया।
युधिष्ठर आदि चार भाईयों ने तो यह विष का घूंट पी लिया, किन्तु भीमसेन की आंखे इस अपमान के कारण क्रोध से लाल हो गयी । उनके तेवर बदलते देख कौरव भयभीत हुए और उन्होंने द्रौपदी को वापस दे दिया। इसके बाद कौरवों द्वारा अपमानित पांचों पाण्डवों ने वनवास स्वीकार किया। वे दीर्घ काल तक एक वन से दूसरे वन में भटकते रहे । अन्त में दशार्ह की छोटी बहिन कुन्ती पांडवों की माता उन्हें द्वारिका ले गयी ।
तदनन्तर पाण्डवं वहां सबसे पहले समुद्रविजय के घर गये। वहां पर समुद्रविजय तथा अक्षोभ्यादिक दशार्हो ने अपनी बहिन तथा भानजों का बड़ा सत्कार किया। उन्होंने कहा - "कौरवों ने आप लोगों को जीता छोड़ दिया और आप लोग सकुशल यहां तक आ पहुँचे, यही परम सौभाग्य की बात है । "
कुन्ती ने विनयपूर्वक इसका उत्तर देते हुए कहा - "हे बन्धुओं ! मैं तो मर ही चुकी थी, किन्तु आप लोगों पर मुझे जो आशा भरोसा है, उसी के कारण मैं अपने पुत्रों के साथ अब तक जीवित रह सकी हूँ। मैं समय समय पर तुम्हारे और बलराम कृष्ण के अद्भुत बल विक्रम की बातें सुना करती थी । उन्हीं के कारण मैं उनको देखने के लिए लालायित हो उठी थी और उसी से मार्ग की इतनी कठिनाइयां सहकर मैं अपने पुत्रों के साथ यहां आयी हूँ ।"
इसके बाद कुन्ती अपने पुत्रों के साथ कृष्ण से मिलने के लिए उनके